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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
एतेन सत्सामान्यस्य विशेषोपहितत्वं द्रव्यत्वादिसामान्यस्य च द्रव्यत्वादिविशेषोपहितत्वमसिद्धं ब्रुवाणः प्रत्याख्यातः, सतां विशेषाणां भावः सत्ता द्रव्यादीनां भावो द्रव्यादित्वमिति सत्तादिसामान्यस्य स्वविशेषाश्रयस्यैव प्रत्ययाभिधानव्यवहारगोचरत्वात् । सद्र्व्यं सुवर्ण वानयेत्युक्ते तन्मात्रस्यानयनादर्शनात् स्वविशेषात्मन एव सदादिसामान्यस्य तद्गोचरत्वं प्रतीतिसिद्धम् । सदादिविशेषमानयेति वचने तस्य सत्त्वादिसामान्यास्मकस्य व्यवहारगोचरत्ववत् । ततः सूक्तं सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनः शद्धगोचरत्वम् । तथा शद्धव्यवहारस्य निर्वाधमवमासनात् ।
___ इस कथन करके सत्तासामान्यका सविशेषोंसे सहितपना और द्रव्यत्व, गुणत्व आदि जातियों का विशेषद्रव्यपना, गुणपना आदि उपाधियोंसे सहितपना असिद्ध है। इस प्रकार कहने वाले वैशेषिक मतका खण्डन हो गया समझ लेना चाहिये । घट, पट, रूप, रस, उत्क्षेपण, भ्रमण आदि विशेष सत्पदार्थोंका भाव ही तो सत्ता है । अनेक सत् पदार्थोको कहनेवाले सत् शबसे भावमें तल् प्रत्यय करने पर सत्ता शब्द बनता है । पृथ्वी, जल, तेजः या जीव, पुद्गल आदि विशेष द्रव्योंके भावको द्रव्यत्व कहते हैं। जो विशेषोंका भावरूप सामान्य है वह उन विशेषोंसे युक्त अवश्य है । घोडे, पदाति आदिके समुदायरूप सेनामेंसे घोडे आदि संपूर्ण विशेषोंको पृथक् कर दिया जावे तो सेना कुछ भी नहीं रह जाती है । तैसे ही गुणत्व सामान्य भी गुणविशेषोंसे और कर्मत्वसामान्य कर्म विशेषोंसे युक्त है, इत्यादि और भी लगा लेना । सत्ता, द्रव्यत्व आदि सामान्य अपने अपने विशेषोंके आश्रय होते हुए ही ज्ञानव्यवहार और शद्बव्यवहारके विषय हो रहे हैं । भावार्थ-विशेषोंसे रहित कोरे सामान्यका न तो ज्ञान होता है और न कथन ही होता है । विशेषोंसे सहित ही सामान्यका जानना और बोलना हो रहा है । सामान्य सत्को या कोरे द्रव्यको अथवा सभी आकृतिविशेषोंसे रहित अकेले सोनेको लाओ ! ऐसा कहनेपर विशेषोंसे युक्त ही द्रव्य, गुण, रूप सत्का या पृथ्वी, घट, आदि विशेषद्रव्योंका तथा रुचक, पांसा, डेली, कटक, कुण्डल, सौ टञ्च, अट्ठानवें टञ्च आदि विशेषोंसे युक्त होरहे नियत सुवर्णका लाना व्यवहारका विषय हो रहा है । केवल कोरे सत्ता, द्रव्य, और सुवर्णका लाना नहीं देखा जाता है । अपने विशेषोंके साथ, तादात्म्य रखते हुए ही सत्, द्रव्य, सुनर्ण, आदि सामान्योंका उस व्यवहारमें विषय होकर चलन होना प्रतीतियोंसे सिद्ध हो रहा है। तथा जैसे कि यदि कोई विशेषरूपसे सत्, घट, पट आदिको या विशेषरूपसे पृथ्वी, जलको तथा बाजू , कडे, फांसेको लानेके लिये कहे तब भी केवल विशेषोंका ही लाना नहीं होता है । किन्तु सत्त्व, द्रव्यत्व, सुवर्णत्वरूप सामान्यसे तादात्म्य रखते हुए उन विशेषोंके लानेका व्यवहारमें चलन होता है । अर्थात् सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तुमें तदात्मक ओतपोत हो रहे हैं । एकको छोडकर दूसरा नहीं रह सकता है, न आसकता है । तिस कारण हमने बहुत अच्छा कहा था कि सामान्यविशेषस्वरूप वस्तु ही सम्पूर्ण शब्दोंका वाच्य विषय है । तिसी प्रकार लोकमें शद्वजन्य