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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
विशेषताओंकी सिद्धि किससे करोगे ? सबसे प्रथम स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे तो ज्ञानोंकी विशेषताका निर्णय हो नहीं सकेगा, क्योंके यों तो आपके सिद्धान्तसे स्वयं आपको विरोध होगा, जब कि नैयायिकोंने ज्ञानका प्रत्यक्ष होना अन्य ज्ञानोंसे माना है । एक आत्मामें समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले उत्तर समयवर्ती द्वितीय ज्ञानसे पहिले ज्ञानका प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया है। यहांतक कि किसी नैयायिकने तो ईश्वरके भी दो ज्ञान मान लिये हैं । एक ज्ञानसे यावत् पदार्थोको जानता है और दूसरे ज्ञानसे ईश्वर उस ज्ञानका प्रत्यक्ष कर लेता है। अतः आप नैयायिकोंके सिद्धान्तानुसार स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे ज्ञानोंकी विशिष्टताका निर्णय नहीं हो सकता है, जो ज्ञान स्वयं अपनेको नहीं जानता है । वह भला अपनी विशेषताओंको कैसे जान सकेगा ? जिस अन्ध पुरुषको मोती नहीं दीखता है उसको मोतीके प्रतरोंकी विशेषता भी नहीं जंचती है, अन्यथा अपसिद्धान्त दोष बन बैठेगा । यदि आप अन्य ज्ञानोंसे प्रकृत ज्ञानोंकी विशेषताओको जानोगे तो उन अन्य ज्ञानोंके लिये पुनः चौथे, पांचवें, छठे आदि ज्ञानान्तरोंकी आवश्यकता पडेगी । इस प्रकार अनवस्था दोष होगा। यदि अनवस्थाके निवारणार्थ ज्ञानोंकी विशेषताका निश्चय ज्ञेयविषयोंकी विशेषतासे होना मानोगे ऐसा माननेपर तो अन्योन्याश्रयदोष है, क्योंकि विषयोंके वैलक्षण्य (विशेषता ) की सिद्धि होनेपर ज्ञानोंके विशेषकी सिद्धि होवे और ज्ञानोंमें विशेषताकी सिद्धि हो जानेपर विषयोंमें विशेषताकी सिद्धि होवे, इस प्रकार अनवस्था स्वरूप गम्भीर व्याघ्रीसे बच जानेपर भी अन्योन्याश्रयदोषरूपी तुच्छ भालूसे पिण्ड छुडाना कठिन है। .
न चैवं सर्वत्र विशेषव्यवस्थापहवः स्वसंविदितज्ञानवादिनां प्रत्ययविशेषस्य स्वार्थव्यवसायात्मनः स्वतः सिद्धेः सर्वत्र विषयव्यवस्थोपपत्तेः।।
यदि तुम हमारे ऊपर इस प्रकार कटाक्ष करोगे कि यों तो सभी स्थानोंपर विशेषताकी व्यवस्था करना छिप जावेगा यानी कहीं किसी दर्शनमें भी पदार्थोके वैलक्षण्यकी व्यवस्था न हो सकेगी। घट और आत्मामें चेतन, अचेतनपनेकी विशेषताका जो हेतु दिया जावेगा उसमें भी कुचोद्य उठा दिया जा सकेगा कि घटमें जडता और आत्मामें ज्ञान क्यों है ? इत्यादि । सो आप नैयायिक हम जैनोंके ऊपर यह अपह्नवदोष नहीं लगा सकते हैं । क्योंकि हम ज्ञानोंकी विशेषतासे ही ज्ञेयोंकी विशेषताका निर्णय होना मानते हैं । सम्पूर्ण ज्ञानोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है। अपना और अर्थका निश्चय करनेवाले स्वरूप ज्ञानोंकी विशेषताओंका हम स्वसंवेदनज्ञानवादी जैनोंके यहां स्वतः निर्णय कर लिया जाता है । अभ्यास दशामें ज्ञानोंकी प्रमाणताके निर्णय समान उनकी विशेषताओंका भी स्वतः निर्णय हो जाता है और उन ज्ञानकी विशेषताओंसे सभी स्थलोंपर विषयोंके विशेषताकी व्यवस्था होना बन जाता है। अतः हम स्याद्वादियोंके यहां कोई दोष नहीं आता है । हम अन्तमें सब पदार्थोके निर्णय करनेका भार ज्ञानके ऊपर देते हैं और वह ज्ञान सूर्यके समान स्वांशोंका तथा अन्य अंशोंका युगपत् प्रकाशक माना गया है ।