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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
आकृतिपनके अभावका प्रसंग होगा। यदि आकृतिवादी सत्त्व,द्रव्यत्व,आत्मत्व आदि जातियोंको आकृतिपना न मानोगे तो आकृति ही पदका वाच्यअर्थ है । ऐसा एकान्त कैसे सिद्ध होगा? सत्, द्रव्य, आदि पद भी तो किसी न किसी अर्थको कह रहे हैं । जाति, गुण और कर्म इन सबको भी पदका वाच्य अर्थपना सिद्ध है। किन्तु आकृतिवादी आप जाति, गुण और कर्मों में संस्थानविशेष मानते नहीं हैं, ऐसी दशामें विशेषसंस्थानसे अभिव्यंग्य होरही जातिरूप आकृति ही पदका वाच्यअर्थ है यह एकान्त भला कैसे रक्षित रह सकेगा ।
___ व्यक्त्याकृतिजातयश्च पदार्थ इत्यभ्युपगच्छतामदोष इति चेन्न, तेषामपि कस्यचित् पदस्य व्यक्तिरेवार्थः कस्यचिदाकृतिरेव कस्यचिज्जातिरेवेत्येकान्तोपगमात् पक्षत्रयोक्तदोषानुषक्तेः।
यहां कोई गौतमसूत्र अनुसार कहते हैं कि घोडा, गौ, हाथी, नीला, लाल, सुगन्ध, घूमना आदि व्यक्तियां और विशेष संस्थानसे प्रगट की गयी जातिरूप आकृतियां तथा नित्य जाति ये तीनों ही पदके वाच्य अर्थ हैं, इस प्रकार स्वीकार करनेवाले नैयायिकोंके यहां कोई दोष नहीं आता है। यों गुण, कर्म, जाति आदि सभी पदके वाच्यअर्थ हो जावेंगे। ग्रन्थकार समझाते हैं कि सो यह तो नहीं कहना, क्योंकि तीनोंको पदका वाच्य अर्थ माननेवाले उनके मतमें भी किसी पदका अर्थ तो व्यक्ति ही माना है और किसी किसी पदका अर्थ आकृति ही माना है तथा किसी पदका अर्थ जाति ही स्वीकार किया है। इस प्रकार एकान्तरूप अंगीकार करनेसे तीनों पक्षोंमें कहे गये दोषोंका प्रसंग होगा, जो प्रत्येक पक्षमें दोष होता है वह स्वतन्त्र, अपेक्षा रहित, तीनों पक्षोंके माननेपर भी अवश्य लागू होगा।
किञ्च, संस्थानविशेषेण व्यज्यमानां जातिमाकृतिं वदतां कुतः संस्थानानां विशेषः सिध्येत् येनाकृतीनां विशेषस्तव्यंग्यतयावतिष्ठेत । न तावत् स्वत एव तनिश्चितिरतिप्रसंगात् । परस्माद्विशेषणात्तद्विशेषो निश्चीयते इति चेत्, तद्विशेषणस्यापि कुतो विशेषोवसीयताम् ? परस्माद्विशेषणादिति चेदनवस्थानात् संस्थानविशेषाप्रतिपत्तिरिति कथं तब्यंग्याकृतिविशेषनिश्चयः।
दूसरी एक बात यह भी है कि विशेषसंस्थानोंसे प्रगट हुयी जातिको आकृति कहनेवालोंके यहां संस्थानोंका विशेषपना किस हेतुसे सिद्ध होगा ? जिससे कि उस विशेष संस्थानसे व्यंग्यपने कर आकृतियोंका विशेष व्यवस्थित होता । भावार्थ-गौ और महिष आदिके रचनाओंकी विशेषताका हेतु बतलाओ ! जिससे कि गोत्व, महिषत्व, रूप विशेष आकृतियां जानी जा सकें । पहिले यह बात तो हो नहीं सकती कि उन संस्थानोंकी विशेषताका अपने आप ही निश्चय कर लिया जावे । क्योंकि यों तो अतिप्रसंग दोष हो जावेगा । अर्थात् सदृश अनेक गौओंमें भी कारण विना अपने आप ही विशेषताओंका निर्णय हो जाओ ! जो कि इष्ट नहीं है । यदि दूसरे प्रकार आप यों कहें कि अन्य