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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
डित्थ, डविथ, पुस्त इत्यादिक शब्द स्वतन्त्र न्यारे यदृच्छाशद्व नहीं हैं, किन्तु उन डित्थ आदि शद्वों करके भी डित्थपना आदि आकृतिका ही कथन होता है, यानी अपने मन की प्रसन्नता से किसी जीव या वस्तुके यों ही इच्छानुसार रख लिये गये नाम यदृच्छा शब्द माने गये थे सो वे भी आकृति शद्व ही हैं । काठ के बने हुये हाथीका नाम डित्थ धर लिया, या खैरकी लकडीसे बने हुये मनुष्य का नाम डविथ मान लिया, पगडी बांधनेके शिरसदृश आकारवाले काठको पुस्त कहा जाता "है, ये शद्ब आकृतिको कहते हैं ।
इत्येवमाकृतिं शब्दस्यार्थं ये नाम मेनिरे । तेनातिशेरते जातिवादिनं प्रोक्तनीतितः ॥ ४० ॥ जातिराकृतिरित्यर्थ भेदाभावात्कथञ्चन । गुणत्वे वाकृतेर्व्यक्तिवाद एवास्थितो भवेत् ॥ ४१ ॥
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इस प्रकार आठ वार्तिकों द्वारा जो कोई बादी शद्वका वाच्य अर्थ आकृतिको मानते हैं वे वादी भी हमारी कही हुयी बढिया नीतिके अनुसार केवल जातिको शद्वका वाच्यअर्थ मानने वाले मीमांसकोंसे अतिशय ( आधिक्य ) नहीं रखते हैं । अर्थात् जातिके व्याप्य आकृतिको शद्वका अर्थ मानना और जातिको अर्थ मानना एकसा ही ढंग है । जैसे ही नागनाथ वैसे ही सांपनाथ हैं, जातिसे आकृतिमें कोई विशेष चमत्कार नहीं है, किसी अपेक्षासे जाति और आकृति एक ही हैं कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । यदि आकृतिको अवयवसंस्थान ( परिमाण ) रूप मानोगे तब तो व्यक्तिवाद ही आकर उपस्थित हो जावेगा । अर्थात् आकृतिको गुण माननेपर एक प्रकार से गुणस्वरूप व्यक्तिको ही शद्वका वाच्य अर्थ मान लिया कहना चाहिये । व्यक्तिवादके एकान्त पक्ष में अनेक 1 दोष दिये ही जा चुके हैं ।
न सर्वा जातिराकृतिर्नापि गुणश्चतुरस्रादिसंस्थानलक्षणः । किं तर्हि ? संस्थानविशेषव्यंग्या जातिर्लोहितत्वगोत्वादिराकृतिः सा च संस्थानविशेषानभिव्यंग्यायाः सत्त्वादिजातेरन्या । न सर्वे संस्थानविशेषेणैव व्यंग्यं तद्रहिताकाशादिष्वपि भावात् । द्रव्यत्वमनेनातयंग्यमुक्तं तथा गुणेषु संस्थानविशेषाभावात् । तद्वदात्मत्वादि तदनभिव्यंग्यं बहुधा प्रत्येयम् । गोत्वं पुनर्न सास्नादिसन्निवेशविशेषमन्तरेण पिण्डमात्रेण युज्यते अश्वादिपिण्डेनापि तदभिव्यक्तिप्रसंगात् ! तथा राजत्वमानुषत्वादि सर्वमिति कश्चित् ।
यहां कोई आकृतिवादी साधारण और व्यक्तियोंसे विलक्षण मानी गयी विशेष जाति तथा विशेष गुण व्यक्तिको आकृति मानता हुआ अपना पक्ष यों पुष्ट करता है कि सभी जातियां आकृति