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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः २१३ अभीतक शुद्धद्रव्यको शब्दका अर्थ माननेवाले वादी ही कर रहे हैं कि यदि फिर उन काक, रुचक, आदि विशेषणोंको सत्य मान लोगे तब तो रूप, अनित्य, आदि उपाधियोंको भी सत्यपनेका प्रसंग होगा । तिसी प्रकार उन विशेषणोंके अन्य विशेषणोंको भी सत्यपना प्राप्त होगा। एवं तीसरी, चौथी, आदिको कोटिके विशेषण भी सत्य हो जावेंगे, इस रीतिसे अनवस्था दोष ही हो जावेगा । और उपाधि यानी विशेषण तथा उससे सहित हो रहे विशिष्टपदार्थकी व्यवस्था नहीं हो सकेगी। यदि काक, आदि उपाधियोंको फिर भ्रान्त माना जावेगा, तब तो शुद्धद्रव्यकी रूप आदि उपाधियां भी असत्य हो जाओ ! क्योंकि उस परमार्थभूत शुद्धद्रव्यसे भिन्नपने करके वे रूप आदि विशेषण सम्भव रहे हैं । अर्थात् वे वस्तुभूत नहीं हैं, स्वयं असम्भवते हुए उन रूप आदिकोंका शब्दोंके द्वारा वाचन मानोगे तो उन शब्दोंको विषयरहितपनेका प्रसंग हो जावेगा । जैसे कि असम्भव अश्वविषाणको कहनेवाला शब्द अपने वाच्य माने गये विषयसे रहित है, तैसे ही रूप, अनित्य, आदि शब्द भी निर्विषय हो जायेंगे । इस कारण शब्दोंको आपने वाच्य विषयसे सहितपना चाहने वाले पुरुषों करके प्रत्येक शब्दोंका विषय शुद्धद्रव्य चारों ओरसे स्वीकार कर लेना चाहिये । सभी देशोंमें और सभी कालोंमें उस शुद्धद्रव्यका व्यभिचार नहीं होता है। हां ! उस शुद्धद्रव्यके विशेषणोंका भले ही व्यभिचार हो जावे, जैसे कि आकाश सर्वत्र व्यापक है। घटाकाश, पटाकाश, गृहाकाश, आदिमें लगी हुयी उपाधियोंका भले ही उनसे अन्य स्थलोंमें व्यभिचार हो जावे, किन्तु शुद्ध आकाशका कहीं भी कभी व्यभिचार नहीं होता है। जो शब्द व्यभिचार करनेवाले भी अपरमार्थ विशेषणोंको कह रहे हैं, वे शब्द अपने वाच्य विषयोंसे सहित कैसे भी नहीं होते हैं। अन्यथा स्वप्न, मूर्छित, मनोराज्य आदि अवस्थाके ज्ञानोंको भी स्वप्न आदि अर्थोके विषय कर लेनेपनका प्रसंग हो जावेगा वे सविषय हो जावेंगे । निर्विषय नहीं रहेंगे। इस कारण परिशेषमें यही मानना पडता है कि संपूर्ण शब्द शुद्ध द्रव्यको ही कहते हैं । जाति, क्रिया, विशेषणको कहने वाले शब्द भी शुद्ध द्रव्यको ही कहते हैं । यहांतक अकेले शुद्धद्रव्यको ही शब्दका अर्थ माननेवाले वादी कह रहे हैं । केचिदाहुः से लेकर पदार्थवादिनः तक इनका पूर्वपक्ष हैं । अब आचार्य उत्तरपक्षको कहते हैं कि तेऽपि न परीक्षकाः। सर्वशब्दानां स्वरूपमात्राभिधायित्वप्रसंगात् । परेऽपि ह्येवं वदेयुः सर्वे विवादापन्नाः शब्दाः स्वरूपमात्रस्य प्रकाशकाः शब्दत्वान्मेघशब्दवदिति । नन्विदमनुमानवाक्यं यदि स्वरूपातिरिक्तं साध्यं प्रकाशयति तदानेनैव व्यभिचारः साधनस्य नो चेत् कथमतः साध्यसिद्धिरतिप्रसंगादिति दूषणं शुद्धद्रव्याद्वैतवाचकत्वसाधनेऽपि समानम्। तद्वाक्येनापि द्रव्यमात्राद्यतिरिक्तस्य तद्वाचकत्वस्य शब्दधर्मस्य प्रकाशने तेनैव हेतोय॑भिचारात् । तदप्रकाशने साध्यसिद्धरयोगात् ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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