SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः अर्थक्रियाको करनेवाले अभीष्ट प्रकृत विशेष पदामें प्रवृत्ति न हो सकेगी। साधारण स्वरूप करके जान लेने पर तो सामान्यवाले चाहे जिस व्यक्तिमें या अनेक व्यक्तियोंमें भी प्रवृत्ति हो जावेगी, ऐसी दशामें शद्वके द्वारा बच्चा अपनी माताको अथवा पत्नी अपने पतिको न जान सकेगी। इस प्रकार पहिले अनुमान पक्षमें होनेवाले दोष दूसरे अर्थापत्तिवाले पक्षमें भी लागू हो जाते हैं । २०७ सामान्यविशेषस्यानुमानार्थत्वाददोष इत्यपरः । तस्यापि शद्वार्थो जातिमात्रं मा भूत् सामान्यविशेषस्यैव तदर्थतोपपत्तेः । संकेतस्य तत्रैव ग्रहीतुं शक्यत्वात् । तथा च शब्दात्प्रत्यक्षादेरिव सामान्यविशेषात्मनि वस्तुनि प्रवृत्तेः परमतसिद्धेर्न जातिरेव शब्दार्थः । कुछ जैनोंकी शरण में आया हुआ कोई दूसरा वादी यह कहता है कि अनुमान प्रमाणका विषय केवल सामान्य ही नहीं है, किन्तु सामान्यका विशेष पदार्थ भी अनुमान प्रमाणका ज्ञेय है, यानी सामान्य और विशेष अंशोंसे युक्त वस्तुको अनुमान जानता है, अतः कोई दोष नहीं है । अर्थात् अनवस्था नहीं है। व्याप्ति भी बन जावेगी और विशेषमें प्रवृत्ति भी हो जावेगी । अब आचार्य कहते हैं कि उस दूसरे वादीके भी केवल सामान्य ही तो शब्दका वाच्य अर्थ नहीं हुआ । सामान्यके विशेषको ही या सामान्य विशेषात्मक पदार्थको ही उस शद्वका वाच्य अर्थपना सिद्ध होता है और उस सामान्यविशेषात्मक पदार्थमें ही संकेतग्रहण करना बन सकता है। ऐसी ही तो जैनसिद्धान्त है । घट से कम्बु और ग्रीवासे युक्त वस्तु कही जाती है, इस प्रकारका संकेत सामान्य और विशेष अंशोंसे घिरे हुए पदार्थमें माना गया है । तिस कारण सिद्ध होता है कि जैसे प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे सामान्यविशेषात्मक वस्तुको जानकर उसमें प्रवृत्ति होती है, अतः प्रत्यक्ष आदिकका विषय सामान्यविशेषात्मक वस्तु है । तैसे ही शद्वसे भी सामान्यविशेषात्मक वस्तुमें प्रवृत्ति और ज्ञप्ति होना प्रतीत हो रहा है । इससे तो तुमसे दूसरे जैन मतकी सिद्धि हो जाती है, अतः केवल जाति ही शका वाच्य अर्थ है । यह मीमांसकोंका मत सिद्ध नहीं हो पाता है । द्रव्यमेव पदार्थोऽस्तु नित्यमित्यप्यसंगतम् । तत्रानंत्येन संकेतक्रियाऽयुक्तेरनन्वयात् ॥ २३ ॥ वाञ्छितार्थप्रवृत्त्यादिव्यवहारस्य हानितः । शद्वस्याक्षादिसामर्थ्यादेव तत्र प्रवृत्तितः ॥ २४ ॥ कोई विद्वान् कहता है कि सम्पूर्ण पदोंका अर्थ नित्यद्रव्य ही होओ, कोई भी शब्द जाति, गुण, क्रिया, आदिको नहीं कहता है । भावार्थ- सभी शद्व नित्यद्रव्योंके वाचक हैं । अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसीका कहना भी असंगत है, क्योंकि उन व्यक्तियोंमें अनन्तपनेके कारण संकेत करना नहीं बन सकता है। द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें अन्वय होना भी नहीं घटता है। भावार्थ---
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy