________________
१८८
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
दण्ड इच्छाके ज्ञान में इच्छाके निमित्त कारण स्तुति, उपकार, गुणदर्शन आदि भी उसके कारण बन बैठेंगे, जो कि किसीने नहीं माने हैं।
ततः सर्वस्य स्वानुरूपप्रत्ययविषयत्वं वस्तुनोऽभिप्रेयता समानपरिणामस्यैव समानप्रत्ययविषयत्वमभिप्रेतव्यम् । एकत्वस्वभावस्य सामान्यस्यैकत्वात्ययविषयत्वप्रसंगात् । स एवायं गौरित्येकत्वात्यय एवेति चेत् न, तस्योपचरितत्वात् । स इव स इति तत्समाने तदेकत्वोपचारात् स गौरयमपि गौरिति समानप्रत्ययस्य सकलजनसाक्षिकस्यास्खलद्रूपतयानुपचरितत्वसिद्धेः।
तिस कारण सर्व पदार्थों ( वस्तुओं ) को अपने अपने अनुकूल ज्ञानका विषयपना इष्ट करते हो तो वस्तुके सदृश परिणामको ही समान इस ज्ञानका विषयपना मान लेना चाहिये । वे समान परिणाम प्रत्येक व्यक्तिमें रहनेवाले एक एक होकर अनेक हैं । यदि वैशेषिकोंके समान सामान्यका एकपना स्वभाव माना जावेगा तो एकपनेके ज्ञानकी विषयताका प्रसंग होगा यानी एकपनेका ज्ञान भले ही हो जावे । किन्तु " यह खण्ड गौ इस मुण्ड गौके समान है" ऐसे सदृश परिणामको विषय करनेवाला ज्ञान न हो सकेगा । यदि यहां कोई यों कहै कि " यह गौ वही है" इस प्रकारके एकपनेको जाननेवाला ही ज्ञान होता है, समानताका ज्ञान नहीं होता है । ग्रन्थकार समझाते हैं कि ऐसा कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि अनेक गौओंमें " यह वही गौ है " इस प्रकार एकत्वको विषय करनेवाला वह ज्ञान उपचरित है । वस्तुतः चितकवरी गौको देखकर धौली गौको देखनेवाले पुरुषको उसके समान यह गौ है ऐसा ज्ञान होना चाहिये । किन्तु यह भी गौ है, और वह भी गौ थी, इस प्रकार गोत्वधर्मसे एकत्वका उपचार ( आरोप ) कर लिया जाता है। जैसे कि उस देवदत्तके समान वह जिनदत्त था ऐसा उसके समान पुरुषमें या यमलकमें उसके एकपनेका कल्पित व्यवहार कर लिया जाता है । यदि परमार्थरूपसे विचारा जावे तो वह बैल था। यह भी वृषभ (बैल) है। इस प्रकार सदृशपनेको विषय करनेवाला ज्ञान सम्पूर्ण मनुष्योंके सम्मुख (गवाही होते हुए ) बाधारहित स्वरूप करके मुख्यपने रूपसे सिद्ध हो रहा है । भावार्थ-जाति ज्ञानका विषय एकत्व नहीं है प्रत्युत सदृश परिणाम है यह बात सिद्ध हो गयी। ___कश्चिदाह-दण्डीत्यादिप्रत्ययः परिच्छिद्यमानदण्डसम्बन्धादिविषयतया नार्थान्तरविषयः कल्पयितुं शक्यः समानप्रत्ययस्तु परिच्छिद्यमानव्यक्तिविषयत्वाभावादर्थान्तरविषयस्तच्चार्थान्तरं सामान्यं प्रत्यक्षतः परिच्छेद्यमन्यथा तस्य यत्नोपनेयमत्येयत्वाघटनात् नीलादिवदिति, तदसत् ।
___ यहां कोई वैशेषिक मतानुयायी कह रहा है कि दण्डवान् , छत्रवान् , कुण्डलवाला इत्यादि ज्ञान तो परिमित दण्डका सम्बन्ध, जाने गये छत्रका संयोग, इत्यादि नियत पदार्थोको विषय करते हैं। अतः दण्ड, छत्र आदिकसे दूसरे अन्य अर्थोको विषय नहीं कर पाते हैं। जो परिमित पदार्थोंको