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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
श्रद्धानं सम्यग्दर्शनमित्युच्यमानेऽनर्थश्रद्धानमपि तत्स्यादित्यतिव्याप्तिर्लक्षणस्य माभूत् अर्थग्रहणात् । न चार्थानर्थविभागो दुर्घटः । प्रमाणोपदर्शितस्यार्थत्वसिद्धेरितरस्यानर्थत्वव्यवस्थानात् ।
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श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है यदि इस प्रकार ही लक्षण कहा जावेगा तो मिथ्याज्ञानोंसे ग्रहण . किये गये अनर्थीका श्रद्धान करना भी वह सम्यग्दर्शन बन बैठेगा, इसलिये लक्षणकी अतिव्याप्ति न होवे, अतः अर्थग्रहण किया है, अर्थात् अर्थके ग्रहण करनेसे उस अतिव्याप्तिका वारण हो जाता है । यदि यहां कोई यों कहे कि संसारमें कौन अर्थ है, और कौनसा अनर्थ हैं ? ऐसा विभाग करना ही अत्यन्त दुस्साध्य कार्य है । एकके लिए जो अर्थ है, वही दूसरेके लिए अनर्थ हो जाता । ऊँटको नीमके पत्ते अच्छे लगते हैं । आम्रवृक्षके नहीं । पित्तप्रकृतिवाले मनुष्यको दही अच्छा लगता है, वातप्रकृतिवालेको नहीं । लालचीको धन अच्छा लगता है, साधुको नहीं । अतः अर्थ और अनर्थ का विभाग करना घटित नहीं हो पाता है । आचार्य कहते हैं कि सो नहीं समझना । क्यों कि प्रमाण के द्वारा निर्णीत किये गये पदार्थको अर्थपना प्रसिध्द है । और शेष अन्य पदार्थोको अनर्थपना व्यवस्थित हो रहा है । जो कि प्रमाणोंद्वारा नहीं प्रदर्शित किये गये हैं ।
सर्वो वाग्विकल्पगोचरोऽर्थ एव प्रमाणोपदर्शितत्वादन्यथा तदनुपपत्तेः, प्रमाणपदर्शितत्वं तु सर्वस्य विकल्पवाग्गोचरत्वान्यथानुपपत्तेः ततो नानर्थः कश्चिदित्यन्ये ।
यहां कोई दूसरे कहरहे हैं कि शद्वके द्वारा कहेजाने योग्य और विकल्पज्ञानोंके द्वारा जाने गये विषय, ये सभी अर्थ ही हैं। क्योंकि प्रमाणोंके द्वारा दिखलाये गये हैं । अन्यथा अर्थात् शद्ब और ज्ञानके विषय न होते तो वे प्रमाणोंके द्वारा दिखलाये गये नहीं बन सकते । सभी पदार्थों को प्रमाणोंसे जाना गयापन तो यों सिद्ध हो जाता है कि वे विकल्पज्ञानके ज्ञेय और शद्वके वाच्य हो रहे हैं । यदि वे प्रमाणोंके द्वारा निर्णीत किये हुए नहीं होते तो ज्ञान और शब्दके विषय नहीं हो सकते थे । तिस कारण संसार में कोई भी पदार्थ अनर्थ कहलाने योग्य ही नहीं है और हम किसी पदार्थको अनर्थरूपसे जान भी नहीं सकते हैं । जो जाना और कहा जायेगा, वह अर्थ अवश्य हो जायगा । जो अर्थ नहीं, वह कहा और जाना नहीं जायेगा । प्रमाणोपदर्शितत्व और वाग्विकल्पगोचरत्व इन हेतु और साध्यमें समव्याप्ति है । जिसको एकका ज्ञान है, वही अज्ञात होरहे दूसरेका अनुमान करलेता है । जिसको दोनोंका ज्ञान नहीं है, उसको तीसरे उपायसे अर्थपनेका निर्णय करा दिया जायेगा । सरल उपाय यह है कि विकल्पवाग्गोचरपनेसे प्रमाणोपदर्शितको जानलो और प्रमागोपदर्शितपनेसे अर्थपनेका ज्ञान कर लो। यहांतक अन्योंका कहना है । अब आचार्य समझाते हैं कि
- तेऽप्येवं प्रष्टव्याः । सर्वोनर्थ एवेति पक्षोऽर्थे स्याद्वा न वा १ स्याच्चेत्सर्वस्यार्थत्वव्याघात दुर्निवारः, न स्याचेचेन व्यभिचारी हेतुर्वाग्विकल्पगोचरत्वेन प्रमाणोपदर्शितत्वस्या