________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
- १७५
-
Nसे द्रव्यमें स्थित हो रहे शद्बोंके विषय हैं, तैसे कोई कोई द्रव्य भी तो तिस द्रव्यमें समवायसे स्थित हो रहा है । वृक्षद्रव्य अपने अवयव विटप, शाखा, पत्र आदि द्रव्योंमें समवाय सम्बन्धसे रहता है तथा पटद्रव्य [ अशुद्ध पुद्गलद्रव्य ] तन्तुद्रव्योंमें समवाय सम्बन्धसे ठहरता है
और तैसे ही संयोग सम्बन्धकी शक्तिसे दण्डी, छत्रीरूप द्रव्यके ज्ञान हो जाते हैं। इस प्रकार द्रव्य सामान्यमें दो प्रकारसे वर्तरहा तो ज्ञान हो जाना इष्ट किया है। इस रीतिपर संयोग समवाय सम्बन्ध की शक्ति करके स्पष्ट रूपसे द्रव्यशद्व व्यवहारमें आते हुए देखे जाते हैं जो कि नाम निक्षेप है। भावार्थः—गति आदिक निमित्तान्तरोंकी नहीं अपक्षा करके केवल वक्ताके अभिप्रायसे व्यवहारमें नामकी प्रवृत्ति हो रही है, नामका निक्षेप करनेमें जाति, गुण आदि द्वार हो जाते हैं । तिस कारण शबोंकी जाति, गुण, क्रिया, संयोगीद्रव्य, समवायीद्रव्य इस प्रकार पांच अवयव वाली शब्दोंकी प्रवृत्ति लोकमें कही गयी है वह न्यायकी सामर्थ्यसे अच्छी तरह घटित होती हुयी शास्त्रकारोंके द्वारा भी बाधित नहीं होती है । भावार्थ हम पांच ही प्रकारके शद्बोंका एकान्त नहीं करते हैं इनके अतिरिक्त पारिभाषिक शब्द, यदृच्छा शब्द, सांकेतिक शब्द और अपभ्रंश शब्द भी हैं । तथा द्वीन्द्रिय आदिक जीवोंके अव्यक्त शद्ध भी प्रयोजनोंसे सहित हैं। किन्तु लोकमें जाति आदि पांच प्रकारके शब्द माने हैं। अतः हम शास्त्रमें उनका विरोध भी नहीं करते हैं। न्यायके बलसे प्राप्त हुए सिद्धान्तको मान लेना ही बुद्धिमत्ता है। यहांतक नामनिक्षेपके निमित्तान्तर माने गये जाति आदिका निरूपण कर दिया गया है। . वक्तुर्विवक्षायामेव शब्दस्य प्रवृत्तिस्तत्प्रवृत्तेः सैव निमित्तं न तु जातिद्रव्यगुणक्रियास्तदभावात् । स्वलक्षणेऽध्यक्षतस्तदनवभासनात्, अन्यथा सर्वस्य तावतीनां बुद्धीनां सकदुदयप्रसंगात् । प्रत्यक्षपृष्टभाविन्यां तु कल्पनायामवभासमाना जात्यादयो यदि शदस्य विषयास्तदा कल्पनैव तस्य विषय इति केचित् ।।
यहां बौद्ध कह रहे हैं कि वक्ता जीवके बोलने की इच्छा होनेपर ही शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः उस शद्ब की प्रवृत्तिका निमित्त कारण वक्ताकी इच्छा ही है। किन्तु जाति, द्रव्य, गुण, क्रियायें तो शद्बके निमित्त नहीं है, क्योंकि इनको निमित्त मानकर वह शद्बोंकी प्रवृत्ति नहीं हो रही है । अतः ये निमित्तान्तर ( दूसरे निमित्त ) भी नहीं हैं । जगत्में वस्तुभूत पदार्थ स्वलक्षण है, घट, पट, गृह, गौ, अश्व आदि स्थूल अवयवी पदार्थ तो कल्पित हैं। क्षणिक परमाणुरूप निर्विकल्पंक खलक्षण ही परमार्थभूत है। प्रत्यक्ष प्रमाणसे केवल स्वलक्षण जाना जाता है, तभी तो ज्ञानका नाम भी निर्विकल्पक होगया है। प्रत्यक्षसे जाने गये स्वलक्षणमें उन जाति, गुणः आदिका प्रतिभास नहीं होता है । अन्यथा यानी प्रत्यक्षमें जाति आदिका प्रतिभास स्वीकृत कर लिया जावेगा तो सभी जीवोंको जाति आदिकोंसे सहित उतनी अनेक बुद्धियोंका एक समयमें उत्पन्न होनेका प्रसंग होगा। भावार्थ-जो वस्तुभूत धर्म हैं, उनका वस्तुके