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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः १६७ aamana AAAAAAAAAAAAAAAA गुण है और शद्बमय द्रव्यश्रुत पुद्गलद्रव्यकी पर्याय है, तैसे ही सात तत्त्वोंका द्रव्य, गुण और पर्यायरूपसे गुम्फन हो रहा है। विचारशील भव्यहंसोंके मानसमें उनका अविकल आकलन हो जाता है। यह जैनशासन सदा जयशील बढ़ता रहे । मुमुक्षुश्रद्धाविषयाः सप्तैवेति प्रबोधयत् । जीवादयो मनीषिभ्यो जीयात्कौ श्लोकवार्तिकम् ॥ १॥ - --x- - - नन्वेते जीवादयः शरब्रह्मणो विवर्ताः शद्वब्रह्मैव नाम तत्त्वं नान्यदिति केचित् । तेषां कल्पनारोपमात्रत्वात् । तस्य च स्थापनामात्रमेवेत्यन्ये, तेषां द्रव्यान्तामविष्टत्वात् । तद्व्यतिरेकेणासम्भवात् द्रव्यमेवेत्येके । पर्यायमात्रव्यतिरेकेण सर्वस्याघटनाद्भाव एवेत्यपरे। तनिराकरणाय लोकसमयव्यवहारेष्वप्रकृतापाकरणाय प्रकृतव्याकरणाय च संक्षेपतो निक्षेपप्रसिध्द्यर्थमिदमाह अग्रिम सूत्रके लिये शंका करते हुए अवतरण उठाते हैं कि ये जीव आदिक सात तत्त्व शब्द ब्रह्मकी पर्याय हैं, शद्ब्रह्म ही नाम तत्त्व है। अन्य स्थापना, द्रव्य, भाव कोई पदार्थ नहीं हैं, संसारके सभी पदार्थ शब्दब्रह्मरूप हैं। शब्दब्रह्म अनादि अनिधन है । शब्दब्रह्मसे जिसका तादात्म्य नहीं है उसका ज्ञान भी नहीं हो सकता है । अव्यक्त और व्यक्त रूपसे सभी पदार्थ नाम रूप ही हैं। स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेपके अभिधेय पदार्थोंमें अन्तर्जल्प, बहिर्जल्परूप संज्ञा करना लगा हुआ है । शरोंके वाच्यार्थसे अधिक गुणपन न्यून गुणपन भी देखा जाता है ।संसारमें अनभिलाप्य पदार्थ कोई भी नहीं है, तभी तो अभिधेय और प्रमेयका सहचरभाव है, सर्वत्र नाम निक्षेपका ही दोड दौरा है। अतः एक नाम निक्षेप ही मानना आवश्यक है । जगत्की प्रक्रियाका प्रधान कारण एक शब्द ब्रह्म ही है । उसीके परिणाम जीव आदिक पदार्थ हैं, ऐसा कोई कह रहे हैं । दूसरोंका यह मन्तव्य है कि जीव आदिक सात पदार्थ मुख्यरूप नहीं हैं । उनका केवल कल्पनासे जीवपना, अजीवपना आदि आरोप कर लिया जाता है। अतः उस कल्पनाके आरोपकी केवल स्थापना ही कर ली जाती है। इन्द्र नामके पुरुष या काष्ठके इन्द्र इन दोनोंके समान सुधर्मा सभामें बैठनेवाले पहिले स्वर्गके मुख्य इन्द्रमें भी परम ऐश्वर्यपनेकी स्थापना ही है। तथा भावरूप मुख्य घटमें चेतनमें होनेवाली चेष्टा करनेकी स्थापना है । भविष्यमें राजा होनेवाले राजपुत्रमें भी सूर्य या चन्द्रमें रहनेवाली दीप्तिकी स्थापना है । नाम निक्षेपमें भी शद्बानुपूर्वीके द्वारा स्थापना की गयी है। संसारमें पुत्र, मित्र, धन, गृह, कुटुम्ब आदिमें सर्वत्र स्थापना ( कल्पना) का ही साम्राज्य है। इस कारण स्थापना ही उपाय तत्त्व है। अन्य नाम, द्रव्य, भाव ये तीन नहीं, ऐसा कोई अन्य एकान्तवादी कह रहे हैं। तीसरोंका कहना है कि उन नाम, स्थापना, भाव, तीनोंका द्रव्यके अन्तरंगमें प्रवेश हो जाता है। सभीमें भविष्यके परिणमन होनेकी शक्ति विद्यमान है । द्रव्यसे भिन्नपने करके कोई नाम, स्थापना, भाव ये तीन तत्त्व नहीं संभवते हैं ।
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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