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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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चतुर्थसूत्रका सारांश
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इस सूत्र के प्रकरणोंका संक्षिप्त निर्देशके अनुसार प्ररूपण इस प्रकार है कि मोक्ष चाहनेवाले जीवको श्रद्धान करने योग्य सात ही तत्त्व हैं। तभी तो सर्वज्ञदेवने सातही तत्त्वोंका भाषण किया और उसीके अनुसार श्री उमास्वामी महाराजने अपने तत्त्वार्थसूत्रमें सात ही तत्त्वोंका निरूपण किया है। जो कोई मध्यमरुचिवालोंकी अपेक्षासे सात ही तत्त्वोंका उपदेश देना सिद्ध करते हैं वे सूत्रकारके अभिप्रायको अन्तस्तलस्पर्शी होकर नहीं जानते हैं। मध्यम रुचिवालोंके लिए तो दो, छह, दस, तीस, आदि तत्त्वोंका भी सूत्रण हो सकता था । ग्रन्थकारने बडी विद्वत्ताके साथ इस ग्रन्थिको सुलझाया है कि मुमुक्षुको सात ही तत्त्व उपयोगी हैं। दो, छह, नौ आदि नहीं। सातोंके श्रद्धानकी अत्यावश्यकताको पुष्टकर पुण्य, पाप पदार्थोंको बन्ध और आस्रव तत्त्वका ही भेद ( विकल्प ) इष्ट किया है । केवल अक्षर और मात्राओंके संक्षेपको चाहनेवालों करके माने गये छह, चार तत्त्वोंसे कार्य नहीं चल सकेगा । मोक्षके कारण और बन्धके कारण तत्त्वोंका व्यक्तिमुद्रासे स्वतन्त्र कण्ठेोक्त कहना न्याय्य है इसमें गहरा तत्त्व बतलाया है । जीव आदिक शब्दोंकी निरुक्ति करके उनका लक्षण अग्रिम ग्रन्थमें कहा जावेगा ऐसा संतोष देकर द्वन्द्व समासमें पडे हुए जीव आदिकोंका शाब्दबोध प्रक्रिया के अनुसार संगति दिखलाते हुए क्रम सिद्ध किया है । तत्त्वों का उपदेश जीवके लिए ही है । जड प्रकृति, निरन्वय विज्ञान या उसकी कल्पित सन्तानके लिए नहीं हैं । जड शरीरको भी तत्त्वोपदेश लाभदायक नहीं है । चैत्यन्यका चैतन्यमें चैतन्यके लिये तत्त्वोपदेश होता है। इसके पीछे अजीव, आस्रव, आदिके निरूपण में स्वरस बतलाया है । तत्त्वका निर्दोष लक्षणकर भाव और भाववान् के साथ हुए सामानाधिकरण्यको तर्क द्वारा सिद्ध किया है। विशिष्टाद्वैतवादियोंके परब्रह्मरूप एक जीवतत्त्वके ही एकान्तका विशिष्ट युक्तियों से खण्डन कर अनेक जीवोंको सिद्ध करते हुए शुद्धाद्वैतवादियोंके प्रति भी अनेक सन्तानोंको सिद्ध करा दिया है । अद्वैतवादियोंके अनुमान, आगम और प्रत्यक्षका प्रतिविधान कर अनेकत्वको सिद्ध करनेवाले प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमोंको समीचीनपना दिखलाया है। यदि प्रत्यक्षप्रमाणको वस्तुका सद्भाव साधनेवाला ही मांना जावे, निषेधक न माना जावे तो भी कथञ्चित् निषेधकपना उसमें आ ही जाता है। अनेक आत्माओंका विधायकपना भी उनके ही प्रत्यक्षसे चौडेकर दिखला दिया है । दूसरोंके प्रति आत्मतत्त्वको समझाने के लिये प्रशस्त उपाय वचनतत्त्व ही हो सकता है । वह वचन अजीव है । उपेयसे उपाय भिन्न है । वेतनात्मक पदार्थोंका सर्वज्ञ और स्वव्यक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य जीवको प्रत्यक्ष नहीं होता है । किन्तु वचन, प्रतिपाद्यका शरीर, लिपिअक्षर, घट, आदिका अनेक पुरुषोंको बहिरिन्द्रिय द्वारा प्रत्यक्ष हो रहा है । अतः ये सब