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तत्त्वार्थाचन्तामणिः
- व्यवधायकरूपसे पडे हुए भावांशपनेकी सिद्धि है । वह अतिरिक्त तत्त्व नहीं है और अन्य नैयायिक, वैशेषिक आदिके मन्तव्यानुसार माने हुए तत्त्वोंकी सम्भावना तो है ही नहीं । इस प्रकार सभी वास्तविक तत्त्वोंका इन सातोंमें ही संग्रह हो जाता है ।
प्रमाणादय एव स्युः पदार्था षोडशेति तु ।
ब्रुवाणानां न सर्वस्य संग्रहो व्यवतिष्ठते ॥ ५४ ॥ तत्रानध्यवसायस्य विपर्यासस्य वाऽगतेः । नास्याप्रमाणरूपस्य प्रमाणग्रहणाद्गतिः ॥ ५५ ॥ संशीतिवत्प्रमेयान्तर्भावे तत्त्वद्वयं भवेत् । संशयादेः पृथग्भावे पृथग्भावोऽस्य किं ततः ॥ ५६ ॥
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"जैनोंके अनुसार माने गये सात तत्त्वोंमें तो सर्व पदार्थोंका अन्तर्भाव हो जाता है । किन्तु प्रमाण आदिक ही सोलह पदार्थ है इस प्रकार कहनेवाले नैयायिकोंके यहां तो सर्वही तत्त्वोंका संग्रह होना व्यवस्थित नहीं हो पाता है । नैयायिकोंने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान ये सोलह पदार्थ माने हैं । तिनमें मिथ्याज्ञानका एक भेद संशय ही लिया है, उससे अकेले संशयकी ज्ञप्ति हो सकती है । अनध्यवसाय और विपर्ययज्ञानकी ज्ञप्ति नहीं हो सकेगी । अर्थात् दो मिथ्या ज्ञानोंका संग्रह नहीं हुआ । प्रमाणके ग्रहणसे तो प्रत्यक्ष आदि प्रमाण पकडे जा सकते हैं । अप्रमाण रूप अनध्यवसाय और विपर्यासका प्रमाण तत्त्वके कहने से संग्रह या परिज्ञान नहीं हो सकता है, जैसे कि संशयका प्रमाणमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता है । तभी तो संशयको स्वतन्त्र तीसरा पदार्थ माना है । यदि अनध्यवसाय और विपर्ययका प्रमेयतत्त्वमें अन्तर्भाव करोगे, तब तो प्रमाण और प्रमेय दो ही तत्त्व हो जावेंगे । सभी तत्त्वोंका इनमें गर्भ हो सकता है । शिष्यकी बुद्धिको विशद करने के लिये यदि संशय, प्रयोजन आदिको पृथक् तत्त्वपने करके निरूपण करोगे तो क्या अनध्यवसायका या विपर्ययका उन संशय आदिकसे भेदभाव है ? भावार्थ — शिष्यकी व्युत्पत्ति बढाने के लिये विपर्यय अनध्यवसायका भी तत्त्वोंमें स्वतन्त्ररूपसे निरूपण करना चाहिये । अथवा संशय के समान अनध्यवसाय और विपर्ययका भी पृथग्भाव रूपसे क्यों न निर्देश किया जावे ? |
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प्रमाणविधिसामर्थ्यादप्रमाणगतौ यदि । तत्रानध्यवसायादेरन्तर्भावो विरुध्यते ॥ ५७ ॥