________________
१५५
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
[ कर्म ] इन दो में रहता है [ हेतु ] । जैसे कि विभाग, दित्व संख्या, पृथक्त्व ये भाव दो आदि पदार्थोंमें रहते हैं ( दृष्टांत ) । सांख्योंके मतानुसार केवल [ अकेले] प्रधान में ही उस बन्धका रहना असम्भव है । अतः वह बन्ध उस प्रधानका ही धर्म है ऐसा अवधारण ( एवकार) नहीं किया जा सकता है। अर्थात् पुद्गल और जीवात्मा इन दोनोंका धर्मबन्धतत्त्व है, अकेले पुद्गल (प्रकृति) का नहीं । न हि प्रधानस्यैव धर्मो बन्धः सम्भवति तस्य द्विष्टत्वादिति । जीवस्यापि धर्मः सोवधार्यते सर्वथा पुरुषस्य बन्धाभावे बन्ध फलानुभवनायोगात् ।
जब कि अकेली सत्त्वरजस्तमोगुणरूप प्रकृतिका धर्म बन्धतत्त्व नहीं सम्भवता है, क्योंकि वह दो में रहता है, इस कारण जीवका भी वह धर्म है ऐसा निर्णय कर लेना चाहिये । यदि सांख्य मती सभी प्रकारोंसे आत्माके बन्ध होना न मानेंगे यानी आत्माको जलसे कमलपत्रके समान निर्लेप मानते हुए प्रकृतिके ही बन्ध कर्त्तापन, ज्ञान, और सुखकी व्यवस्था करेंगे तो प्रकृतिको ही बन्धके फलका अनुभव होगा। आत्माको बन्ध फलका अनुभव नहीं हो सकेगा, यानी सांसारिक भोगोंका भोक्ता आत्मा न हो सकेगा ।
प्रकृत्या
1
बन्धवत्प्रकृतिसंसर्गाद्बन्धफलानुभवनं तस्येति चेत्, स एव बन्धविवर्तात्मिकया संसर्गः पुरुषस्य बन्धः इति सिद्धः कथञ्चित्पुरुषधर्मः संसर्गस्य द्विष्टत्वात् । बन्धसे युक्त होरही प्रकृतिका आत्माके साथ संसर्ग हो जानेके कारण उस आत्मा को भी बन्ध फलका अनुभव होगा। क्योंकि नीति भी है कि " संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति " अर्थात् दोषीके संसर्गसे दोष और गुणीके संसर्गसे गुण अन्य आत्माओंमें भी हो जाते हैं । शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रिय रूप प्रकृतिका संसर्ग आत्मासे हो रहा है । अतः बन्धफलका संचेतन आत्माके माना गया है, यदि कपिल ऐसा कहेंगे तब तो हम कहते हैं कि बन्धपर्यायसे तदात्मक परिणमी हुयी प्रकृतिके साथ पुरुषका जो संसर्ग है वही तो बन्धतत्त्व है । इस प्रकार सिद्ध हुआ कि वह संसर्गरूप बन्ध पदार्थ • किसी न किसी प्रकारसे पुरुषका भी धर्म है, क्योंकि संसर्ग दो में रहा करते हैं, दोसे कमती नहीं । एक तीर ( किनारे) की कोई नदी नहीं हो सकती है । यों मुमुक्षुको बन्ध तत्त्वकी प्रती करना भी अत्यावश्यक है ।
1
संवरो जीवधर्मः स्यात् कतृस्थो निर्जरापि च । मोक्षश्च कर्मधर्मोप कर्मस्थो बन्धवन्मतः ॥ ४७ ॥ धर्मिधर्मात्मकं तत्त्वं सप्तभेदमितीरितम् । श्रद्धेयं ज्ञेयमाध्येयं मुमुक्षोर्नियमादिह ॥ ४८ ॥
संवरतत्त्व और निर्जरातत्त्व ये दोनों भी जीवके धर्म हैं । ये दोनों अपने कर्त्ता आत्मामें टहरते हैं, कर्ममें नहीं । आत्माके गुप्ति, समिति, तपस्या, शुक्लध्यान, क्षपकश्रेणीरूप भाव ही संवर I