SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थ लोकवार्तिके तिस प्रकार तत्त्वार्थपनेका निर्णय कर लेंगे जीवकी आवश्यकता नहीं है, आप चार्वाक ऐसा कहोगे सो तो ठीक नहीं है, क्योंकि वह सत्ता अचेतन पदार्थ है । अचेतनसे अचेतनका निर्णय नहीं हो सकता है। यदि उस सत्ताको चेतन मानोगे तो चार तत्त्वोंसे निराला पांचवां चेतनतत्त्व सिद्ध होता है, और उसको ही जीवपना युक्तियोंसे प्रसिद्ध हो जायेगा । भावार्थ – दूसरोंके लिये अजीवको सिद्धि भलें ही वचन आदि अजीव पदार्थोंसे हो जावे, किन्तु स्वके लिये अजीवकी सिद्धि आत्मतत्त्वको माननेपर ही हो सकती है। आत्मा ही तो अजीवोंका प्रत्यक्ष कर रहा है । जैसे कि भक्ष्य पदार्थ भोक्ता आत्मा के होनेपर ही अपने लिये होते हैं । अथवा अजीव पदार्थ स्वयं तो अपनी सिद्धिको नहीं कर सकता है, क्योंकि वह जड है । जीवके होनेपर ही अजीवकी सिद्धि हो सकेगी, जैसे कि जीवके होनेपर ही जड शरीर कार्यकारी है मृत शरीर अध्ययन, सामायिक, विचार करानेमें उपयोगी नहीं है । स्यान्मतमजीवविवर्तविशेषश्चेतनात्मकं प्रत्यक्षं न पुनर्जीव इति । तदसत् । चेतनाचेतनात्मकयोर्विवर्तविवर्तिभावस्य विरोधात् परस्परं विजातीयत्वाज्जलानलवत् । सम्भव है कि चार्वाकोंका यह मन्तव्य होवे कि चेतनस्वरूप प्रत्यक्षप्रमाण भी पृथ्वी, आदिक अजीव तत्त्वोंकी विशिष्ट पर्यायरूप है, किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण कोई जीव पदार्थ नहीं है । इस प्रकार चार्वाकों का वह कहना प्रशस्त नहीं है । क्योंकि अचेतन पृथिवी आदिकों के परिणाम चेतन नहीं होते हैं चेतन और अचेतन स्वरूप पदार्थोंके परिणाम और परिणामी भाव होनेका विरोध है । क्योंकि वे परस्परमें भिन्न भिन्न जातिवाले हैं, जैसे कि जल और अग्नि । जलका परिणाम अग्नि नहीं है और अग्निकी पर्याय जल नहीं है । तभी तो जल और अग्नि तत्त्व भिन्न माने गये हैं । यह दृष्टान्स . चार्वाकमतकी अपेक्षासे उन्हींके लिये दिया गया है। जैन मतानुसार तो जलसे अग्नि और अनिसे जल भी उत्पन्न हो सकता है, ये दोनों पुद्गल द्रव्यकी पर्यायें हैं, किन्तु जड और चेतन पदार्थोंमें उपादान उपादेयभाव कैसे भी नहीं हो पाता है । १४४ सुवर्णरूप्यवद्विजातीयत्वेऽपि तद्भावः स्यादिति चेन्न, तयोः पार्थिवत्वेन सजातीयत्वात् लोहत्वादिभिश्च । तर्हि चेतनाचेतनयोः सत्त्वादिभिः सजातीयत्वात्तद्भावो भवत्विति चेन्न भवतो जलानलाभ्यामनेकान्तात् । चार्वाककी ओरसे कोई यों कहे है कि जैसे सोने और रूपेमें भिन्न जातीयपना होते हुए भी वह परिणाम परिणामी भाव है। वैसे ही विजातीय जडका परिणाम चेतन भाव हो सकता है । रसायन प्रक्रिया से औषधियोंका संसर्ग होनेपर सुवर्णधातु रूपा बन जाती है । और रूपा धातु भी सोना बन जाती है । आचार्य समझाते हैं कि इस प्रकारका कहना तो ठीक नहीं है, क्योंकि सोने और रूपेको पृथ्वीका विकारपना धर्मसे समान जातीयपना है। सोना पृथ्वीकाय है और रूपा भी उसी जातिका पृथ्वीका है । चार्वाक मतमें भी दोनोंको पृथ्वीका विकार माना गया है तथा मेदिनी कोषकार के अनुसार चांदी, सोना, तांबा, आदि सर्व ही धातुओंको लोहा कहा जासकता है। लोहत्व,
SR No.090496
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 2
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1951
Total Pages674
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy