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(८) आचार्यश्रीकी आदर्शभावना
____ श्री परमपूज्य,प्रातःस्मरणीय, विश्ववंद्य आचार्य कुंथुसागर महाराजने अपने जीवनमें, अपनी अगाधविद्वत्ता, आदर्शचारित्रके द्वारा विश्वका अपूर्व कल्याण किया है। उनकी प्रबल भावना थी कि जैन धर्मके लोकोपकारी तत्वोंको समस्त विश्व अपनावे । और यह विश्वधर्म सिद्ध होकर विश्वका हित हो। उसी ध्येयको सामने रखकर परमपूज्य आचार्यश्रीने सर्वसाधारणोपयोगी,अत्यंतसरल अपितु महत्वपूर्ण करीब १० कृतियोंकी रचना की, जो कि संस्थाके द्वारा प्रकाशित हुए हैं । पूज्य आचार्य महोदयकी भावनाके अनुरूप ही प्राचीन आचार्योके महत्वपूर्ण ग्रंथका प्रकाशन भी संस्थाके द्वारा हो रहा है । इस प्रकाशनके संबंधमें समाजके धर्मबंधुवोंने आनंदको व्यक्त किया है । विद्वानोंने हर्ष प्रकट किया है । साधुसंतोंने आशिर्वाद दिया है। इन्ही पुण्यरेणुवोंके बलसे यह कार्य निर्बाध खपसे सुसंपन्न होगा, ऐसी पूर्ण श्रद्धा है। . हमारी अपेक्षा
संस्थाने अल्पशक्तिके होनेपर भी महत्कार्यके भारको उठाया है। उसमें भी ग्रंथमालाके स्थायी सदस्योंको नियमानुसार यह बृहद्ग्रंथ विनामूल्य ही भेट दिया जा रहा है । करीब ४०० स्थायी सदस्योंको ग्रंथ भेटके रूपमें जानेके बाद मूल्यसे खरीदनेवालोंकी संख्या बहुत थोडी मिलेगी। ऐसी अवस्थामें हम हमारे स्थायी सदस्योंसे एवं अन्य श्रुतभक्तोंसे प्रार्थना करना चाहते हैं कि वे हमें अधिकसे अधिक सहायता इस कार्यमें प्रदान कर संस्थाके दार्यमें मदत करें जिससे वह जिनबाणीकी इतोप्याधिक सेवा कर सके।
संतमें श्रीमानोंकी सहायतासे, धीमानोंकी सद्भावनासे, गुरुजनोंके शुभाशिर्वादसे, साधुसंतोंकी शुभकामनासे एवं सबसे अधिक श्री परमपूज्य आचार्य कुंथुसागर महाराजकी परोक्ष प्रबल-प्रसादसे या कार्य उत्तरोत्तर उत्कर्षशील हो, यह आंतरिक भावना है । इति.
विनीत
सोलापुर ५-५-१९५१
वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री ऑ. मंत्री-आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमाला सोलापुर.