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________________ तस्वार्थसार ___ नीललेश्या-जो मन्द हो, निर्बुद्धि हो, विवेकसे रहित हो, विषयोंकी तृष्णा अधिक रखता हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी हो, चाहे जिसकी बातोंमें आ जाता हो, निद्रालु हो, दुसरेको ठगने में निपुण हो और धन-धान्यमें अधिक लालसा रखता हो वह नीललेश्याका धारक है । कापोतलेण्या-जो दूसरोंपर रोष करता हो, दूसरोंको निन्दा करता हो, दूसरोंको दोष लगाता हो, शोक या भय अधिक करता हो, दूसरेसे ईर्ष्या रखता हो, दूसरेका तिरस्कार करता हो, अपनी प्रशंसा करता हो, अपने ही समान दगावाज समझकर दूसरेकी प्रतीति नहीं करता हो, स्तुतिके वचन सुनकर संतुष्ट होता हो, हानि-लाभको नहीं समझता हो, रणमें मरनेकी इच्छा करता हो, अपनो प्रशंसा सुनकर बहत दान करता हो तथा कार्य और अकार्यको नहीं समझता हो वह कापोतलेश्याका धारक है । पोतलेश्या-जो कार्य और अकार्यको समझता हो, सेव्य और असेव्यका विवेक रखता हो, सबके साथ समान व्यवहार रखता हो, दया तथा दानमें तत्पर रहता हो और स्वभावका कोमल हो वह पोसलेश्याका धारक है। पालेश्या-जो त्यागी हो, भद्र परिणामी हो, उत्कृष्ट कार्य करनेवाला हो, बहुत अपराधोंको क्षमा कर देता हो तथा साधु एवं गुरुओंको पूजामें तत्पर रहता हो वह पालेश्याका धारक है। __शुक्ललेण्या-जो पक्षपात नहीं करता हो, निदान नहीं करता हो, सब जीवापर समान भाव रखता हो तथा जिसके तीव्र राग, द्वेष और स्नेह न हो वह शुक्ललेश्याका धारक है। ___ पहलेसे चौथे गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती हैं, पाँचवेंस मातवें तक पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन लेश्याएँ होती हैं और उसके आगे तेरहवें गुणस्थान तक सिर्फ शुक्ललेश्या होती है। चौदहवें गुणस्थानमें कोई भी लेण्या नहीं होती। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानमें यद्यपि कपायका सद्भाव नहीं है तो भी भूतपूर्व प्रज्ञापननयकी अपेक्षामात्र योगप्रवृत्तिम लेश्याका व्यवहार किया जाता है । चौदहवें गुणस्थानमें योगप्रवृत्ति भी नहीं है, इसलिये वहाँ लेश्याका सद्भाव नहीं होता। __कषाय--जो आत्माके क्षमा आदि गुणोंका घात करे उसे कपाय कहते हैं। इसके क्रोध, मान, माया और लोभके भेदसे चार भेद होते हैं । वेद-स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे जो रमनेका भाव होता है उसे बेद कहते हैं । इसके तीन भेद हैं-१ स्त्रीवेद, २ पुरुषवेद और ३ नपुं. सकवेद । इन वेदोंका सद्भाव नवम गुणस्थानके पूर्वार्ध तक रहता है।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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