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________________ द्वितीयाधिकार . .ना पञ्चलब्धियाँ-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये पांच लब्धियां कहलाती हैं। दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे ये प्रकट होती हैं। ये लब्धियाँ मिथ्यादष्टि तथा सम्यग्दृष्टि दोनोंके होती हैं। वेशसंयम-अनन्तानबन्धी और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध,मान,माया, लोभ इन या प्रकृतियोंके स्नाभाती क्षण तथा सटवस्थारूप उपशम होनेसे और प्रत्याख्यानावरणचतुष्क तथा संज्वलनचतुष्कका उदय होनेपर एवं हास्य आदि नोकषायोंका यथासम्भव उदय होनेपर जो एकदेशसंयम प्रकट होता है उसे देशसंयम अथवा संयमासंयम कहते हैं। इस संयममें असहिसा आदि सूक्ष्म पापोंसे निवत्ति न होनेके कारण अविरत अवस्था रहती है। यह देशसंयम सिर्फ पञ्चम गुणस्थानमें होता है | इसके दर्शनप्रतिमा आदि ग्यारह अवान्तर भेद होते हैं। क्षायोपशमिकसम्यक्त्व-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन छह सर्वघाती प्रकृतियोंके वर्तमानकालमें उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय तथा आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम तथा सम्यक्त्वप्रकृति नामक देशघातिप्रवृत्तिका उदय रहते हए जो सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसे क्षायोपशमिकासम्यक्त्व कहते हैं। यह चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होता है । इसीका दूसरा नाम वेदकसम्यग्दर्शन है। क्षायोपशभिकचारित्र-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्यख्यानावरणचतुष्क सम्बन्धी बारह सर्वघाति प्रवृतियोंके वर्तमानकालमें उदय आनेवाले निषेकोंका उदयाभावी क्षय और आगामी कालमें उदय आनेवाले निषेकोंका सदवस्थारूप उपशम, संज्वलनचतुष्कमेंसे किसी एक देशतिम्पर्द्धकका उदय एवं हास्यादि नौ नोकषायोंका यथासम्भव उदय रहनेपर जो निवृत्तिरूप परिणाम होता है उसे क्षायोपमिकचारित्र' कहते हैं । यह चारित्र छठवें गुणस्थानसे लेकर दशवें गुणस्थान तक होता है। ___ दर्शनश्य-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीन दर्शनत्रय कहलाते हैं। चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण तथा अवधिदर्शनावरण इन तीन कर्मप्रकृतियोंके क्षयोपशमसे क्रमशः प्रकट होते हैं। चक्षु इन्द्रियसे होनेवाले ज्ञानके पहले पदार्थका जो सामान्य अबलोकन होता है उसे चक्षुदर्शन कहते हैं । चक्षु इन्द्रियके सिवाय शेष इन्द्रियों तथा मनसे होनेवाले ज्ञानके पहले जो सामान्य अवलोकन होता है उसे अचक्षुर्दर्शन कहते हैं तथा अवधिज्ञानके पहले होनेवाले सामान्य अबलोकनको अवधिदर्शन कहते हैं । चक्षुर्दर्शन और अचक्षुदर्शन
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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