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प्राक्कथन पूर्वार्धमें कहा है कि लिङ्ग या हेतुसे अनुमानमें और प्रसिद्धिसे उपमानमें प्रामाण्य आता है। उत्तरार्धका अनुवाद पं० जीने इस प्रकार किया है 'परन्तु मुक्तजीवोंका सुख शलिंग है.--हेतुरहित है तथा अप्रसिद्ध है इसलिये वह अनुमान और उपमान प्रमाणका विषय न होकर अनुपम माना गया है।' शब्दशः अनुबाद ठोक है किन्तु उसका भाव स्पष्ट नहीं हुआ । अनुमान कहते हैं साधनसे साध्यके ज्ञानको। किन्तु मुक्तों के सुखको बतलाने वाला कोई साधन या हेतु नहीं है। प्रसिद्ध अर्थके साधर्म्यसे साध्यका साधन करने वाला उपमान प्रमाण है। जैसे गो प्रसिद्ध है । उसकी समानता देखकर यह जानना कि गौके समान गवम होता है ग्रह उपमान प्रमाण है ऐसा प्रसिद्ध अर्थ कोई नहीं है जिसके साधर्मसे मुक्तोंके सुसको जाना जा सके अतः वह निरूपम है ।' मस्तु ___वर्णी ग्रन्थमालाके अभ्युदयमें उसके मंत्री डॉ. दरबारीलालजो कोठियाको निष्काम सेवा प्रमुख कारण है। हम श्रोफोय्यिाजी तथा पं० पन्नालालजीको इस कृति तथा उसके प्रकाशनके लिये धन्यवाद देते हैं । इस ग्रन्धके अनुवाद तथा प्रकाशनको आवश्यफता थी।
वाराणसी
कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य प्राचार्य, स्थावाद महाविद्यालय