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________________ २४ तत्त्वार्थसार अनुभव है । तिर्यञ्चगति में किन्हीं के जातिस्मरण, किन्हींके धर्मश्रवण और किन्हींके जिनबिम्बदर्शन है। मनुष्यगतिमें भी इसी प्रकार तीनों बाह्यसाधन हैं । देवगतिमें आनतस्वर्गके पहले-पहले किन्होंके जातिस्मरण, किन्हीके धर्मश्रवण, किन्हीके जिनकल्याणकदर्शन और किन्हीं के देवदर्शन है । आनतप्राणत आरण और अच्युत स्वर्गके देवोंके देवद्धिदर्शनको छोड़कर तीन साधन है | नवग्रेबेकवासी देवोंके किन्होंके जातिस्मरण और किन्होंके धर्मश्रवण साधन है। अनुदिश और अनुत्तर विमानोंमें नियमसे सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं इसलिये वहाँ साधनोंकी चर्चा नहीं है । प्रश्न- सम्यग्दर्शनका अधिकरण क्या है ? उत्तर - अधिकरण के भी बाह्य और आभ्यन्तरकी अपेक्षा दो भेद हैं । आभ्यन्तर अधिकरण स्वस्वामिसम्बन्ध के योग्य आत्मा ही है और बाह्यअधिकरण एकराजू चौड़ी तथा चोव्हराजू लम्बी लोकनाड़ी है । प्रश्न- सम्यग्दर्शनकी स्थिति क्या है ? उत्तर – औपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट छयासठसागर प्रमाण है । क्षायिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर नष्ट नही होता, इसलिये इस अपेक्षा उसकी स्थिति सादि-अनन्त है परन्तु संसारमें रहनेको अपेक्षा जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तसहित आठवर्ष कम दो करोड़वर्ष पूर्व तथा तेतीससागरकी है । प्रश्न- सम्यग्दर्शनका विधान --- भेद क्या है ? उसर — सम्यग्दर्शनके निसर्गज और अधिगमजकी अपेक्षा दो भेद होते हैं । अथवा औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकको अपेक्षा तीन भेद हैं । इसी तरह सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र तथा जीव अजीव तत्त्वोंके विषयमें भी निर्देश आदि छह उपायोंकी योजना करनी चाहिये ॥ ५२ ॥ तत्त्वोंको जाननेके अन्य उपाय आर्याछन्द अथ सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शनकालान्तराणि भावश्च । अल्पबहुत्वं चाष्टावित्यपरेऽप्यधिगमोपायाः ||५३॥ अर्थ - इसके अनन्तर सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोग भी तत्त्वोंके जाननेके उपाय हैं । भावार्थ- सद् आदि आठ अनुयोगोंके द्वारा भी जीवादि तत्त्वोंका ज्ञान होता है । इनका सामान्य स्वरूप इस प्रकार है । सत् — वस्तुके अस्तित्वको सत् कहते हैं ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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