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________________ प्रथम अधिकार विश्वदृश्वा होगा । जिसने विश्वको देख लिया है वह विश्वदृश्वा कहलाता है यहाँ 'विश्वदृश्वा' इस भूतकालिक कर्ताका 'जनिता' इस भविष्यत्कालिक क्रियाके साथ सम्बन्ध जोड़ा गया है। जैसे-'संतिष्ठते, प्रतिष्ठते, बिरमति, उपरमति आदि' यहाँ परस्मैपदी 'स्था' धातुका 'सम्' और ' उपसर्गके कारण आत्मनेपदमें प्रयोग हुआ है तथा 'रम' इस आत्मनेपदी धातुका 'वि' और 'उप' उपसर्गके कारण परस्मैपदमें प्रयोग हुआ है। लोकमें यद्यपि ऐसे प्रयोग होते हैं तथापि इस प्रकारके व्यवहारको शब्दनय अनुचित मानता है ।। ४८ ॥ समभिरूढनयका लक्षण ज्ञेयः समभिरूढोऽसौ शब्दो यद्विपयः स हि । एकस्मिन्नभिरूढोऽर्थे नानार्थान् समतीत्य यः ।।४।। ___ अर्थ जहाँ शब्द नाना अर्थोंका उल्लङ्घन कर किसी एक अर्थमें रूढ होता हैं उसे समभिरूढनय जानना चाहिये। जैसे 'गौः' यहाँ गो शब्द, वाणी आदि अर्थीको गौणकर गाय अर्थमें रूढ हो गया है ॥ ४९॥ एवम्भूतनयका लक्षण शब्दो येनात्मनाभूतस्तेनैवाध्यवसाययेत् । यो नयो मुनयो मान्यास्तमेवंभृतमभ्यधुः ॥५०॥ अर्थ-शब्द जिस रूपमें प्रचलित है उसका उसी रूपमें जो नय निश्चय कराता है माननीय मुनि उसे एवम्भूतनय कहते हैं। जैसे इन्द्र शब्दका व्युत्पत्त्यर्थ 'इन्दतीति इन्द्र' ऐश्वर्यका अनुभव करनेवाला है इसलिये यह नय इन्द्रको उसी समय इन्द्र कहेगा जब कि वह ऐश्वर्यका अनुभव कर रहा होगा, अभिषेक या पूजन करते समय इन्द्रको इन्द्र नहीं कहेगा। तात्पर्य यह है कि समभिरूवनय शब्दके वाच्यार्थको ग्रहण करता है और एवंभूतनय निरुक्त अर्थको ॥५०।। नयोंको परस्पर सापेक्षता एते परस्परापेक्षाः सम्यग्ज्ञानस्य हेतवः । 'निरपेक्षाः पुनः सन्तो मिथ्याज्ञानस्य हेतवः ॥५१॥ १ 'निरपेक्षा नया मिश्याः, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत'। --आप्तमीमांसा २ य एवं नित्यक्षणिकादयो नया मिथोनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः । त एक सत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥ -स्वयंभूस्तोत्र
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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