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________________ ----- २७ प्रस्तावना सुद्धो सुद्धादेलो गायत्रो परमभावदरिसीहिं यवहारवेसिया पुण जे दु अपरमे विदा भावा ।। १३ ।। परमभाव — उत्कृष्ट शुद्धस्वभावका अवलोकन करनेवाले पुरुषोंके द्वारा शुद्धस्वरूपका वर्णन करनेवाला शुनय - निश्चयनय जातत्र्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं के महानयसे उपदेश देने के योग्य हैं । इस गाथा की आत्मख्याति टीका में श्री अमृत चन्द्रस्वामीने सुवर्णका दृष्टन्त देकर वस्तुस्वरूपको सरलता से समझाया है। इस तरह हम अमृतचन्द्रस्वामीको तस्वनिरूपणकी दिशामें अत्यन्त जागरूक पाते हैं । आपके द्वारा रचित निम्नांकित पाँच ग्रन्थ उपलब्ध है -१ समयप्राभृतटीका, २ प्रवचनसारीका ३ पास्तिकायटीका, ४ पुरुषा सिद्धघुपाय और ५ तत्त्वाचार | प्रारम्भके तीन ग्रन्थ कुन्दकुन्दस्वामी के समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय इन तीन ग्रन्थों की टीकारूप है । तीनों ग्रन्थों की टीकाओं में आपने जिस उच्चकोटिकी का प्रयोग किया है वह साधारण विद्वानोंके बुद्धिगम्य नहीं है । समयसारकी टोका में तो गद्यसे अतिरिक्त आपने कलश-काव्यों की भी रचना की है जो कि बहुत ही भावपूर्ण और प्रेरणाप्रद है | I पुरुषार्थसिद्धघुपाय २२६ श्लोकोंका प्रसादगुणोपेत एक स्वतंत्र ग्रन्थ है, जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रका सुन्दर रीतिसे वर्णन किया है। अहिंसाधर्मका जैसा वर्णन पुरुषार्थसिद्धयुपाय में उपलब्ध है वैसा हम अन्यत्र नहीं पाते हैं । तत्वार्थसार तत्त्वार्थ सूत्र के आधारपर पल्लवित और विकसित रचना है। तस्वार्थसूत्रका यथार्थ नाम तत्त्वार्थ ही है क्योंकि तस्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थ लोकवार्तिक, तत्त्वार्थवृत्ति आदि नामोंसे तत्त्वार्थ नामकी ही पुष्टि होती है । सूत्रमय होनेमे इसे तस्वार्थ सूत्र कहा जाने लगा। प्रकृत ग्रन्थके 'तत्त्वार्थसार' इस नामसे भी यही नाम ध्वनित होता है अर्थात् अमृतचन्द्रस्वामीका यह ग्रन्थ तत्त्वार्थका सार ही है। इसमें तत्वार्थ सूत्रमें प्रतिपादित समस्त तस्योंका सार तो संगृहीत है ही उसके अतिरिक्त पंचसंग्रह, सर्वार्थसिद्धि एवं राजवातिक्रमें प्रतिपादित कितनी ही विशिष्ट बातोंका भी संकलन है । अमृतचन्द्रसूरिका आशाघरजीने अपने अनगारधर्मामृतकी भव्यकुमुदचन्द्रिका टीकामें दो स्थानोंपर ठक्कुर नामसे उल्लेख किया है 1 यथा १ एतदनुसारेणव टक्कुरोऽपीदमपाठीत् — लोके शरस्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । पृ० १६० २ एतच्च विस्तरेण ठक् कुरामृतचन्द्रसूरिविरचितसमयसारटीकायां द्रष्टव्यम् । पृ० ५८८ यह ठकुर या ठाकुर पद जागीरदारों और ओहदेदारोंके लिये प्रयुक्त होता था । इससे इनको गृहस्थावस्थाको संपन्नता या प्रभुता सूचित होती है ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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