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________________ अष्टमाधिकार ततोऽप्यूर्ध्वगतिस्तेषां कस्मानास्तीति चेन्मतिः । धर्मास्तिकायस्याभावात्स हि हेतुर्गतेः परः || ४४ || २०५ अर्थ - बे सिद्ध भगवान् तादात्म्यसम्बन्ध होने के कारण केवलज्ञान और केवलदर्शन के विषय में सदा उपयुक्त रहते हैं तथा सम्यवत्व और सिद्धता अवस्थाको प्राप्त हैं । हेतुका अभाव होनेसे वे निःक्रिया - क्रियासे रहित हैं । यहाँ कोई ऐसा विचार करे कि लोकान्त के आगे भी सिद्धों की गति क्यों नहीं होती है तो उसका उत्तर यह है कि लोकान्तके आगे धर्मास्तिकायका अभाव है । वास्तवमें धर्मास्तिकाय गतिका परम कारण है । भावार्थ – सिद्धों के औपशमिक आदि भावोंका तो अभाव हो जाता है परन्तु सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वगुण उनमें सदा विद्यमान रहते हैं। सिद्धों का केवलज्ञान और केवलदर्शन सदा उपयोगरूप ही होता है । उनमें लब्धि अवस्था नहीं रहती । सिद्ध होने के बाद ही वे ऊर्ध्वगति स्वभाववाले होने से उर्ध्वगमनके द्वारा लोकके अन्तमें पहुँच जाते हैं । लोक्के अन्त में पन्द्रहसौ पचहत्तर धनुष प्रमाण विस्तार से युक्त तनुवात वलय है। उसके उपरितन भाग के पांच सौ पच्चीस धनुषका क्षेत्र सिद्धक्षेत्र कहलाता है । उसी में सिद्धोंका निवास है । सब सिद्धोंके शिर समान स्थानपर हैं और नीचेका भाग अपनी-अपनी अवगाहना अनुसार नीचा रहता है। जिनकी अवगाहना पांचसौ पच्चीस धनुषकी होती है वे पूरे सिद्धक्षेत्र में ऊपरसे नीचे तक स्थित रहते हैं । एक समयकी क्रिया के बाद सिद्ध भगवान् सदाके लिये निष्क्रिय हो जाते हैं । यहाँ कोई प्रश्न कर सकता है कि जब सिद्धोंका कर्ध्वगमन स्वभाव है तब वे लोकान्तके आगे आलोकाकाशमें भी क्यों नहीं चले जाते ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि गमनका सहकारी कारण धर्मास्तिकाय है उसका सद्भाव लोकान्त तक ही है, आगे नहीं, इसलिये कारण के अभाव में आगे गमन नहीं होता है ॥४३-४४|| सिद्धोंके सुखका वर्णन संसारविषयातीतं सिद्धानामव्ययं सुखम् । अव्याबाधमिति प्रोक्तं परमं परमर्षिभिः ॥ ४५ ॥ अर्थ -- सिद्धों का सुख संसारके विषयोंसे अतीत, अविनाशी, अन्याबाध तथा परमोत्कृष्ट है ऐसा परमऋषियोंने कहा है ।। ४५ । शरीररहित सिद्धों के सुख किस प्रकार हो सकता है ? जन्तोर्नष्टाष्टकर्मणः । कथं भवति मुक्तस्य सुखमित्युत्तरं शृणु ॥ ४६ ॥ स्यादेतदशरीरस्य
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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