SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सष्टमाधिकार चारित्र, संख्या, अल्पबहुत्व और अन्तर इन बारह अनुयोगोंसे सिद्ध भगवान् आगमके अनुसार साधनीय हैं-विचार करने योग्य हैं। भावार्थ-जो नय वर्तमानपर्यायको ग्रहण करता है वह प्रत्युत्पन्न नय है और जो भूतपर्यायको ग्रहण करता है वह प्रज्ञापन नय है। इन दोनों नयोंकी अपेक्षा सिद्ध भगवानको विशेषताका विचार काल आदि अनुयोगोंसे आगममें किया गया है । जैसे___ काल-कालकी अपेक्षा यह जीव एक समयमें और उत्सपिणी तथा अवसर्पिणी में सामान्यरूपसे सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है-मुक्त अवस्थाको प्राप्त होता है और भूतपूर्वप्रज्ञापन नयको अपेक्षा दो तरहसे सिद्ध होता है—एक जन्मकी अपेक्षा और दूसरा संहरणको अपेक्षा । जन्मकी अपेक्षा सामान्यरूपसे उत्सपिणी और अवसर्पिणी दोनाम उत्पन्न हुला जीव सिद्ध होता है । विशेषरूपसे अवसर्पिणीके सुपमादुःषमा नामक तृतीयकालके अन्तिम भाग तथा दुःषमसुःषमा नामक चतुर्थकालमें उत्पन्न हुआ जीव सिद्ध होता है। दुःपमासुपमा नामक चतुर्थकालमें उत्पन्न हुआ जीव दुःषमा नामक पञ्चमकालमै सिद्ध हो सकता है परन्तु पञ्चमकालमें उत्पन्न हुआ जोव सिद्ध नहीं होता। संहरणकी अपेक्षा उत्सपिणी अवसर्पिणीके सब कालोंमें सिद्ध होता है अर्थात् तृतीयकालके अन्तिम भाग और चतुर्थकालके सम्पूर्ण समयमें उत्पन्न हुए मनुष्यको यदि कोई व्यन्सरादि देव उठाकर जहाँ प्रथमादिकाल वर्त रहा है ऐसे भोगभूमिके या जहाँ पञ्चम या षष्ठ काल वर्त रहा है ऐसे कर्मभूमिके क्षेत्रमें रख देवे तो यहाँसे भी वह सिद्ध हो सकता है। ___लिङ्ग-लिङ्गका अर्थ बेद है । वेदके स्त्री, पुरुष और नपुंसकको अपेक्षा तीन भेद हैं । ये तीनों बेद भाव और द्रव्यकी अपेक्षा दो-दो प्रकारके हैं । द्रव्यवेद की अपेक्षा सिर्फ पुरुषवेदसे ही यह जीव सिद्ध होता है परन्तु भाववेदकी अपेक्षा तीनों वेदोंसे सिद्ध हो सकता है। प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा अवेदसे ही सिद्ध होता है क्योंकि वेदका सद्भाव नवम गुणस्थान तक रहता है और मोक्ष चौदहवें गुणस्थानके अन्त समयमें होता है। किन्तु भूतपूर्वप्रज्ञापन नयकी अपेक्षा तीनों वेदोंसे सिद्ध हो सकता है । अथवा लिङ्गका दूसरा अर्थ मुद्रा अथवा वेष भी भी है । उस अपेक्षा लिङ्ग के दो भेद है--एक निर्ग्रन्थलिङ्ग और दूसरा सग्रन्थ लिङ्ग । इनमें प्रत्युत्पन्न नयको अपेक्षा निर्गन्ध लिङ्ग-दिगम्बर मुद्रासे हो सिद्ध होता है और भूतपूर्वप्रज्ञापन नयको अपेक्षा सग्रन्थ लिङ्गसे भी सिद्ध होता है। गति-प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा सिद्धिगतिमें ही सिद्ध होता है अर्थात् इस जीवमें सिद्धत्वको व्यवहार तभी होता है जब यह चारों गतियोंसे निर्मुक्त हो
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy