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तत्त्वार्थसार
शेषकर्म फलापेक्षः शुद्धो बुद्धो निरामयः । सर्वज्ञः सर्वदर्शी च जिनो भवति केवली || २५ || निर्वाणमधिगच्छति । यथा दग्धेन्धनो वह्निर्निरुपादानसन्ततिः ||२६||
कृत्स्नकर्मक्षयादूर्ध्वं
अर्थ - जब यह आत्मा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र से अत्यन्त युक्त होता है, आस्रवसे रहित होने के कारण नवीन कर्मोंको सन्तति कट जाती है तथा यह आत्मा पहले कहे हुए क्षयके कारणोंके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोंका क्षय करने लगता है तब संसारका बीजभूत मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है । तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरण और दर्शनावरण ये तीन कर्म एक साथ सम्पूर्ण रूपसे नष्ट होते हैं । जिसप्रकार गर्भसूचोके नष्ट होनेपर बालक मर जाता है उसी प्रकार मोहनीय कर्मके नष्ट होनेपर उक्त कर्म नष्ट हो जाते हैं । तदनन्तर जिसके चार घातिया कर्म नष्ट हो चुके हैं, जो अथाख्यात – अथवा यथाख्यात चारित्रको प्राप्त है जो बीजबन्ध निर्मुक्त है, स्नातक है, परमेश्वर है, शेष बचे हुए चार अघातिया कर्मोंको अपेक्षासे सहित है अर्थात् उनका फल भोग रहा हैं, शुद्ध है, बुद्ध है, नोरोग है, सर्वज्ञ है और सर्वदर्शी है ऐसा आत्मा केवलो जिन - केवलज्ञानी अरहन्त होता है । उसके बाद जिसने प्राप्त इन्धनको जला दिया है तथा जिसके नवीन इन्धनको सन्तति नष्ट हो चुकी है ऐसी अग्नि जिसप्रकार निर्वाणको प्राप्त होती है-बुझ जाती है उसी प्रकार उक्त आत्मा समस्त कर्मीका क्षय होनेसे निर्वाणको प्राप्त होता है - मोक्षको प्राप्तकर लेता है ॥। २०-२६ ॥
मुक्तजीवोंके ऊर्ध्वगमनस्वभावका दृष्टान्तों द्वारा समर्थन तदनन्तरमेवोद्र्ध्वमालोकान्तात्स गच्छति । पूर्वप्रयोगासङ्गत्वादुबन्धच्छेदोर्ध्व गौरवैः ||२७|| कुलालचक्रे डोलायामिषौ चापि यथेष्यते । पूर्वप्रयोगात्कर्मेह तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ २८ ॥ मृल्लेपसङ्गनिर्मोक्षाद्यथा दृष्टास्वलाम्बुनः | कर्मबन्धविनिर्मोक्षात्तथा सिद्धगतिः स्मृता ॥ २९॥
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एरण्डस्फुटदेलासु बन्धच्छेदाद्यथा गतिः । कर्मबन्धन विकछेदाज्जीवस्यापि
तथेष्यते ||३०||