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प्रस्तावना
यही नहीं, समयसारकी व्याख्याके अन्त में स्याद्रादाधिकार, प्रवचनसारके अन्त में स्थाहादायीन ४७ शक्तियों का निरूपण तथा पञ्चास्तिकायके अन्त में ग्रन्थ-तात्पर्य के रूपमें निश्चयाभास, व्यवहाराभास और उभयाभासोंका वर्णन कर स्वादादकी शैलीसे उनका समन्वय भी किया है।
कुन्दकुन्दस्वामीके अन्योंकी टीका लिखने के बाद पुरुपार्थसिद्ध घुयाय ग्रन्यको रचना करते हुए प्रारम्भ में ही उन्होंने अनेकान्तका स्मरण किया है
परमागमस्य जीर्थ निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् ।
सफलमयविलसिताना विरोषमधनं नमाम्यनेकान्तम् ।। अर्थात जो परमागमका जीव—प्राण है, जिसने जन्मान्य मनुष्योंके हस्तिविधानको निषिद्ध कर दिया है और जो समस्त नयविलासोंके विरोधको नष्ट करनेवाला है उस अनेकान्तको मैं नमस्कार करता हूँ।
अन्मान्य मनुष्योंके हस्तिविधानके निषेधका वर्णन करते हुए उन्होंने 'षडन्धा' इस नामसे प्रचलित निम्नाङ्कित प्राचीन कालको ओर पाठकोंका ध्यान आकृष्ट किया है
पुरा षडन्धाः संभूय गजं जातं समुत्सुकाः । प्राप्य हास्तिपकं प्रोचुः सखे पाय नो गजम् ॥ १॥ कोवृशोऽसौ गजो जन्तुर्भहत् तत्र कुन्तलम् । पुरतो वर्तते सोऽयं स्वरं पश्यन्तु सोऽब्रवीत् ॥ २॥ शुण्डां धृत्वा गजस्याथ प्रथमो मुवितोऽवदत् । गजरुपमहो जातं भुजङ्गम समो गजः ॥३॥ परामुश्य द्वितीयस्तु विशालमुवरं ततः ।। अवङ्गितिरूपो हिं गमो भवति निश्चितम् ।। ४ ॥ तृतीयो गजपावं तु वृत्या गर्वथुतोऽववत् । गजः सर्पो न भित्ति; स्तम्भरूपो गजो ह्ययम् ॥ ५ ॥ कर्ण तु व्याततं श्रुत्वा चतुर्थोऽन्धोऽववत्तदा । व्यजनेम समो हस्ती शङ्का मात्र कामन ॥ ६ ॥ रख तोक्षणं करे धृत्वा पञ्चमी विस्मितोऽवदत् । न स्तम्भो व्यजनं नैव शूलरूपो गजो ध्रुवम् ॥ ७॥ लागलं करिणो धुत्वा षष्ठस्तेषु ततोऽशवीत् ।
रज्जुरूपो गजो मूढाः सत्यं जानीय नो कथम् ।। ८ ।। अर्थात पहले कभी हाथोकी जानने के लिये उत्सुक हर छह अन्धे मिलकर महावतके पास गये और बोले, मित्र, हम लोगोंको हामी दिखलाओं। वह हाथी नामका जन्तु फैसा होता है, इस विषय में हमको बड़ा कुतूहल है । महायतने कहा कि वह हापी सामने विद्यमान है । आप लोग अपनो इच्छानुसार देख लें।