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________________ स्वार्थसार भावार्थ - मुक्त जीव में आकारका अभाव नहीं है क्योंकि वे अन्तिम शरीरका आकार धारण करनेवाले हैं ! इस स्थितिमें अनाकार मानकर उनका अभाव नहीं माना जा सकता है ।। १५ ।। १९६ शरीरका अभाव होनेपर आत्मा सर्वत्र फैलता नहीं है शरीरानुविधायित्वे लोकाकाशप्रमाणस्य ततदभावाद्विसर्पणम् । तावन्नाकारणत्वतः ॥ १६ ॥ अर्थ - यदि आत्माका आकार शरीरके अनुरूप होता है तो शरीर अभाव होनेपर लोकाकाशप्रमाण मात्माको सर्वत्र फैल जाना चाहिये, यह बात नहीं है, क्योंकि फैलने का कोई कारण नहीं है । भाषार्थ - शरीर नामकर्मके सम्बन्धसे आत्मामें संकोच और विस्तार होता हैं मुक्त जीवके उसका अभाव हो चुकता है इसलिये उसके सर्वत्र फैलनेका प्रसङ्ग नहीं आता है || १६ | दृष्टान्तद्वारा समर्थन I शरावचन्द्र शालादिद्रव्यावष्टम्भयोगतः अल्पो महांश्च दीपस्य प्रकाशो जायते यथा ॥१७॥ संहारेच विसर्पे च तथात्मानात्मयोगतः । तदभावात्तु मुक्तस्य न संहारविसर्पणे || १८ || अर्थ — जिसप्रकार शकोरा - मिट्टीका वर्तन और चन्द्रशाला --- उपरितनगृह आदि पदार्थरूप आलम्बनों के योगसे दीपकका प्रकाश छोटा और बड़ा होता है। उसी प्रकार आत्मा, अनात्मा - अर्थात् शरीरके योग से संकोच और विस्तारके समय छोटा और बड़ा मालूम होता है। चूँकि मुक्त जीवके शरीरका अभाव हो चुकता है इसलिये संकोच और विस्तार दोनों ही नहीं होते हैं । भावार्थ - यदि दीपकको मिट्टी के शकोरामें रखते हैं तो उसका प्रकाश संकुचित होकर उसी में समा जाता है और किसी बड़े घरमें रखते हैं तो विस्तृत होकर उसमें समा जाता है । वास्तव में प्रकाशके प्रदेश जितने हैं उतने ही हैं। परन्तु बाह्य आलम्बनके योगसे संकोच और विस्ताररूप होनेसे छोटे-बड़े मालूम होते हैं। इसी प्रकार आत्मा के प्रदेश परिमाणकी अपेक्षा लोकाकाशके बराबर हैं अर्थात् आकाशके एक प्रदेशके ऊपर आत्माका एक प्रदेश स्थित हो तो आत्मा समस्त लोकाकाशमें फैल सकता है परन्तु आत्माका संकुचित और विस्तृत होना शरीर के परिमाणपर निर्भर है। मुक्त जीवके शरीरका अभाव हो जाता है इसलिये
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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