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________________ १८८ सत्यार्यसार तत्पुना रुद्धयोगः सन् कुर्वन् कायत्रयासनम् । सर्वज्ञः परमं शुक्लं ध्यायत्यप्रतिपत्ति तत् ॥५४॥ अर्थ-जो वितर्क और वीचारसे रहित है तथा जिसमें योगोंका बिलकुल निरोध हो चुका है वह ध्युपरतक्रिय नामका चौथा शुक्लध्यान है। यह ध्यान सर्वश्रेष्ठ शोलोंके स्वामित्वको प्राप्त होता है अर्थात् यह अठारह हजार शीलके भेदोंसे सहित होता है। जिसके सब योग रुक गये हैं तथा जो सत्तामें स्थित औदारिक, तैजस और कामण इन तीन शरीरोंका त्याग कर रहे हैं ऐसे सर्वज्ञ भगवान् इस उत्कृष्ट शुक्लध्यानका ध्यान करते हैं। यह ध्यान प्रतिपत्तिसे रहित है ।। ५२-५४ ॥ ___ भावार्थ--मोहजनित कलुपतासे रहित ध्यान शुक्लध्यान कहलाता है। इसके ऊपर कहे अनुसार चार भेद होते हैं। इनमें पहला पृथक्त्वशुक्लध्यान ग्यारहवें मुणस्थानमें होता है । यद्यपि अन्य ग्नन्थों में यह ध्यान अष्टम गुणस्थानसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक बतलाया गया है तथापि यहाँ वीरसेनस्वामीके कथनानुसार दशम गुणस्थान तक धर्म्यध्यान और उसके बाद ग्यारहवें गुणस्थानसे शुक्लध्यान माना गया है। इस प्रथम ध्यानमें तीनों योगोंका आलम्बन रहता है तथा श्रुतके शब्द और अर्थमें परिवर्तन होता रहता है इसलिये यह वितर्क और बोचार दोनोंसे सहित होता है। दूसरा एकत्व नामका शक्लध्यान बारहवें गुणस्थानमें होता है तथा तीन योगोंमेंसे किसी एक योगके आलम्बनसे होता है। इसमें श्रतके अर्थ तथा शब्दोंका परिवर्तन नहीं होता। जिस अर्थ, श्रत या योगके आलम्बनसे शुरू होता है अन्तर्मुहूर्त तक उसीपर स्थिर रहता है इसलिये यह वीचाररे रहित होता है । उत्कृष्टताकी अपेक्षा ये दोनों ध्यान पूर्वविद् पूर्वोके ज्ञाता मुनिके होते हैं । तीसरा सूक्ष्मक्रिय नामका शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थानके अन्त समयमें होता है। इसमें मात्र सुक्ष्मकाययोगका आलम्बन रहता है। श्रुतका आलम्बन छूट जाता है इसलिये यह ध्यान वितर्क और वीचार दोनोंसे रहित होता है | चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थानमें होता है। इस व्यानमें सूक्ष्मकाययोगका भी आलम्बन नहीं रहता । वितर्क और वीचार तो पहले ही छूट जाते हैं इसलिये यह ध्यान व्युपरतक्रिय कहलाता है ।। ५३-५४ ।। गुणश्रेणीनिर्जराके वश स्थान सम्यग्दर्शनसम्पन्नः संयतासंयतस्ततः । संयतस्तु ततोऽनन्तानुबन्धिप्रवियोजकः ।।५५।। दृग्मोहक्षपकस्तस्मात्तथोपशमकस्ततः । उपशान्तकषायोऽतस्ततस्तु क्षपको मतः ॥५६॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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