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________________ समाधिकार arisarai लक्षण और भेब आज्ञापायविपाकानां विवेकाय च संस्थितेः । मनसः प्रणिधानं यद् धर्म्यध्यानं तदुच्यते ||३५|| अर्थ --- आज्ञाविचय, अपायश्विय, विपाकविवय और संस्थानविचपके लिये मनकी जो स्थिरता है वह धर्म्यंध्यान कहलाता है । यही इसके चार भेद हैं ॥ ३९ ॥ आज्ञावित्र्य घध्यानका लक्षण प्रमाणीकृत्य सार्वज्ञीमाज्ञामर्थावधारणम् । पदार्थानामाज्ञाविचयमुच्यते ||४०|| गहनानां १८५ अर्थ-- सर्वज्ञ भगवान्को आज्ञाको प्रमाण मानकर गहन सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थोंका निर्धार करना आज्ञाविचय नामका धयंध्यान कहलाता है || ४० || अपायवित्रय धर्म्यष्यानका लक्षण कथं मार्ग प्रपद्येरन्नमी उन्मार्गतो जनाः । अपायमिति या चिन्ता तदपायविचारणम् ।।४१ ॥ अर्थ - ये प्राणी उन्मार्गको छोड़कर समीचीन मार्गको किस तरह प्राप्त हो सकेंगे, इस प्रकारका विचार करना अथवा चतुर्गतिके दुःखोंका चिन्तन करना सो अपायविचय नामका धर्म्यध्यान है ॥ ४१ ॥ विपाकfrer अध्यानका लक्षण द्रव्यादिप्रत्ययं कर्मफलानुभवनं प्रति । भवति प्रणिधानं यद् विपाकविचयस्तु सः || ४२॥ अर्थ- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका कारण पाकर किस कर्मका किस प्रकारका फल भोगना पड़ता है ऐसा जो मनका प्रणिधान है वह विपाकविचय नामका धर्मध्यान है । भावार्थ - कर्मोकी आठ मूल तथा एक सौ अड़तालीस उत्तर प्रकृतियोंका उदय कब, कैसा और किसके होता है ऐसा विचार करना विपाकविचय धर्म्य - ध्यान है || ४२ ॥ ૨૪
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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