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________________ বালিকা भावार्थ-गृहीत मार्गसे च्युत न हों तथा कमौकी निर्जरा हो इस उद्देश्यसे परिषह सहन किये जाते हैं। इन परिषहोम कितनी हो प्राकृतिक बाधाएँ हैं और कितनी ही दूसरोंके द्वारा की हुई हैं। समताभावसे इनका सहन करना चाहिये । संक्षेपसे इनका स्वरूप इस प्रकार है १ क्षुधापरिषह जय-धुद्धिपूर्वक उपवास करने तथा अन्तराय आदिके कारण आहार न मिलने पर क्षुधाकी बाधा उत्पन्न हो रही है फिर भी आत्मस्वरूपके ध्यानमें लीन होनेसे उस ओर जिनका लक्ष्य नहीं जाता ऐसे मुनिके क्षुधाकी बाधा जीतना क्षुधापरिषहजय है। २तषापरिषह जय-अन्तरङ्गमें पित्त आदि दोषोंका प्रकोप तथा बहिरङ्गमें प्रतिकूल आहारके मिलनेसे तृषाकी बाधा उत्पन्न होनेपर भी जो धैर्यरूपी शीतल जलके द्वारा उस तृषाकी बाधाको सहन करते हैं ऐसे मुनिके तृषाकी बाधाको सहन करना तृषापरीषह जय है। ३ शीतपरिषह जय-हाड़ोंको कम्पित करनेवाली शीतको तीव्र बाधाको समताभावसे सहन करना शीतपरिषह जय है। ४ उष्णपरिषह जय-गर्मीके तीव्र दुःखको समताभावसे सहन करना उष्णपरिपह जय है। ५ दंशमत्कुण परिषह जय-डांस तथा खटमल आदिके काटनेकी बाधाको सहन करना दंशमत्वृण परीषह जय है । कहीं पर इस परीषहको दंशमशक परिषह भी कहा है। ६ नग्नतापरिषह जय-नग्न रहते हुए भी बालकोंके समान किसी विकार भावका अनुभव नहीं करना नग्नतापरिषह जय है। ७ अरतिपरिषह जय-अनिष्ट पदार्थोका संयोग होनेपर भी अप्रीतिका अनुभव नहीं करना अरतिपरिषह जय है। ८ स्त्रोपरीषह जय-स्त्रियोंके द्वारा अनेक प्रकारका हावभाव आदिके दिस्खलाने पर भी अपने मनमें किसी प्रकारके विकारका अनुभव नहीं करना स्त्रीपरीषह जय है। ९ पर्यापरीषह जय-पैदल चलनेका दुःख सहना चर्यापरिषह जय है । १० निषद्यापरिषह जय-बहुत समय तक एक ही आसनसे बैठनेका दुःख सहन करना निषद्यापरिषह जय है। ११ शय्यापरिषह जय-कैंकरोली पथरीली जमीनमें शयन करते हुए अन्तर्मुहूर्तव्यापिनी निद्राका अनुभव करना शय्यापरिषह जय है। १२ आक्रोशपरिषह जय--दुर्जनोंके द्वारा कुवचन कहे जानेपर भी दुःखका अनुभव नहीं करना आकोशपरिषह जय है।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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