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________________ षष्ठाधिकार १६३ एषणासमितिका लक्षण पिण्डं तथोपथिं शय्यामुद्गमोत्पादनादिना। साधोः शोधयतः शुद्धा घेषणा समितिभवेत् ॥ ९ ॥ अर्थ-जो उद्गम तथा उत्पादन आदि दोषोंका बचाव करते हुए भोजन, पोछी, कमण्डलु आदि उपकरण और शय्याको शुद्धि रखते हैं ऐसे मुनिके निर्दोष एषणासमिति होती है ॥ ९ ॥ ___ आदाननिक्षेपणसमितिका लक्षण सहसादृष्टदुप॑ष्टाप्रत्यवेक्षणदूषणम् । त्यजतः समितियादाननिक्षेपगोचरा ॥१०॥ अर्थ–सहसादृष्ट–जल्दो देखना, दुर्मष्ट-बुरी तरह परिमार्जन करना और अनत्यवेक्षण-- देवना ही नहीं। इस दोधाला त्या करनेवाले मुनिके आदाननिक्षेपणसमितिका जानना चाहिये ॥१०॥ उत्सर्गसमितिका लक्षण समितिदर्शितानेन प्रतिष्ठापनगोचरा । त्याज्यं मूत्रादिकं द्रव्यं स्थण्डिले त्यजतो यतेः ॥११॥ अर्थ-इसी विधिसे अर्थात् सहसादष्ट, दुर्मष्ट और अप्रत्यवेक्षण दोषोंको बचाते हुए प्रासुक भूमिपर छोड़ने योग्य मूत्र आदि पदार्थोंको छोड़नेवाले साधुके प्रतिष्ठापन अथवा उत्सर्गसमिति दिखलाई गई है ॥ ११ ॥ समितिका फल इत्थं प्रवर्तमानस्य न कर्माण्यावन्ति हि । असंयमनिमित्तानि ततो भवति संवरः ॥१२॥ __ अर्थ--इस तरह समितिपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले मुनिके असंयमके निमित्तसे आनेवाले कर्मोका आस्रव नहीं होता, अतः उनका संवर हो जाता है ।। १२॥ वश धोके नाम क्षमा मृघृजुते शौचं ससत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिञ्चनता ब्रह्म धर्मो दशविधः स्मृतः ॥१३।। अर्थ-क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याम, आकिञ्चनता और ब्रह्मचर्य यह दश प्रकारका धर्म माना गया है ।। १३ ।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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