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________________ पञ्चमाधिकार १५७ असावनुभयो शेयो यथानाम भषेप सः । अर्थ—पहले कहे हुए शुभ अशुभ कर्मोंका जो विपाक है उसे अनुभव या अनुभाग जानना चाहिये । जिस कर्मका जैसा नाम है उसका वैसा ही अनुभव होता है। भावार्थ-पिछली गाथाओंमें कर्मों की स्थिति बतलाई गई है । स्थितिबन्धके अनुरूप आबाधा' भी उसी समय पड़ती है। आयुकर्मको छोड़कर शेष सात कर्मोंकी आबाधाका सामान्य नियम यह है कि एक कोडाकोड़ी सागरकी स्थितिपर सौ वर्षकी आबाधा पड़ती है। सब कर्मोंकी जघन्य स्थितियोंपर उससे संख्यातगुणो कम आबाधा होती है। आयुकर्मकी आबाधा कोटिवर्ष पूर्वके तृतीय भागसे लेकर असंक्षेपाडा अर्थात् जिससे थोड़ा काल कोई न हो ऐसे आवलोके असंख्यातवें भाग प्रमाण तक है । उदीरणाकी अपेक्षा सात कर्मोंकी आबाधा एक आवलीमात्र है आयुकर्ममें परभवसम्बन्धी आयुको उदीरणा नियमसे नहीं होती। जिस कर्मको जितनी स्थिति है उसमेंसे आबाथाकालको घटा देनेपर जो समय बचता है उसमें निषेक रचनाके अनुसार कर्मप्रदेशोंका खिरना शुरू होता है। प्रथम निषेकमें सबसे अधिक कर्मप्रदेश खिरते हैं फिर आगे-आगे उनकी संख्या गुणहानिके अनुसार कम-कम होती जाती है। इस तरह फल देते हुए पुराने कर्म क्रम-क्रमसे खिरते जाते हैं और नये-नये कर्मोंका बन्ध होता जाता है । यह क्रम अनादिकालसे चला आरहा है। प्रत्येक समय, समयप्रबद्ध प्रमाण-सिद्धोंके अनन्तवें भाग और अभव्य राशिसे अनन्तगुणे कर्मपरमाणु आत्माके साथ बन्धको प्राप्त होते हैं और इतने ही कर्मपरमाणुओंकी प्रत्येक समय निर्जरा होती है फिर भी डेढ़ गुणहानि प्रमाण कर्मपरमाणुओंकी सत्ता विद्यमान रहती है। ज्ञानावरणादि कौका जैसा नाम है वैसा ही उनके उदयमें फल प्राप्त होता है। यह जीव अपने कषायरूप परिणामोंकी जिस तीव्र, मध्यम या मन्द अवस्थामें जैसा तीव्र, मध्यम या मन्द अनुभाग बन्ध करता है उसीके अनुसार उसे फल प्राप्त होता है । सातावेदनीय आदि पुण्यप्रकृतियों का अनुभागबन्ध विशुद्ध परिणामोंसे उत्कृष्ट होता है तथा असातावेदनीय आदि अशुभप्रकृतियोंका अनुभागबन्ध संक्लेशरूप परिणामोंसे उत्कृष्ट होता है और विपरीत परिणामोंसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है। घातियाकर्मोकी अनुभागशक्तिको लता, दारु, अस्थि और शिलाकी उपमा देकर, अधातियाकर्मों में पुण्यप्रकृतियोंकी अनुभागशक्तिको गुड़, खाँड़, शर्करा और अमृतकी उपमा देकर, पापप्रकृतियोंकी अनुभागशक्तिको निम्ब, कांजरि, बिष और १. कर्मरूप होकर आया हुआ द्रव्य जब तक उदय या उदोरणाके रूपमें नहीं आता तब तकके. कालको आवाधा कहते हैं ।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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