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________________ ૪૬ तत्वार्थसार हो वह नामकर्म है । जिसके उदयसे उच्च-नीच कुलमें जन्म हो उसे गोत्रकर्म कहते हैं और जिसके द्वारा दान, लाभ आदिमें बाधा प्राप्त हो उसे अन्तराय कर्म कहते हैं ॥ २२ ॥ कर्मोकी एकसौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियाँ अन्याः पञ्च नव द्वे च तथाष्टाविंशतिः क्रमात् । aar त्रिसंयुक्ता नवतिद्वै च पञ्च च ॥ २३॥ 1 J अर्थ – ज्ञानावरणको पाँच, दर्शनावरणको नो वेदनीयकी दो मोहनीयकी अट्ठाईस, आयुकी चार नामको तेरानवे, गोत्रकी दो और अन्तरायको पाँच इस प्रकार सब मिलाकर एक सौ अड़तालीस उत्तरप्रकृतियाँ हैं ।। २३ ।। ज्ञानावरणको पांच प्रकृतियो मतिः श्रुतावधी चैब मनः पर्यवले | एषामावृत्तयो ज्ञानरोधप्रकृतयः स्मृताः ||२४|| अर्थ — मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण ये पाँच ज्ञानावरणकी प्रकृतियां हैं । ये क्रमसे आत्मा के मतिज्ञान आदि गुणोंको घातती हैं ।। २४ ।। बर्शनावरणको नौ प्रकृतियाँ चतुर्णां चक्षुरादीनां दर्शनानां निरोधतः । दर्शनावरणाभिख्यं प्रकृतीनां चतुष्टयम् ॥ २५ ॥ निद्रानिद्रा तथा निद्रा प्रचलाप्रचला तथा । प्रचला स्थानगृद्धिश्च दृग्रोधस्य नव स्मृताः ||२६| अर्थ-चक्षुर्दर्शन आदि चार दर्शनोंको रोकनेसे चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदंर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण और केवलदर्शनावरण ये चार तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्राएँ सब मिलाकर दर्शनावरणकर्मको नी प्रकृतियां स्मरणकी गई हैं। भावार्थ - आत्मा के दर्शनगुणको घातनेवाला कर्म दर्शनावरणकर्म कहलाता है । दर्शनगुणके चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के भेदसे चार भेद हैं इनको आवृत्त करनेवाले चक्षुदर्शनावरण आदि चार भेद दर्शनावरणकर्मके मूल भेद हैं । इनके सिवाय निद्रा आदि पाँच प्रकारको निद्राएँ
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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