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तस्वार्थसार हैं वे जिनागममें सोलहकारण भावनाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं ! इन सोलहकारण भावनाओंमें सम्यग्दर्शनकी विशुद्धता सबसे प्रमुख कारण है क्योंकि इसके विना शेष पन्द्रह भावनाएं होनेपर भी तीर्थकरप्रकृतिका आस्रव नहीं होता है और इसके रहते हुए शेष भावनाओंमें कमी होनेपर भी तीर्थंकरप्रवृतिका आस्रव हो जाता है। सम्यग्दर्शनको विशुद्धताका अर्थ निःशङ्कित आदि आठ अङ्गरूप सम्यग्दर्शनका धारण करना है। तत्त्वदष्टिसे सम्यग्दर्शको बिशुद्धता बन्धका कारण नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन तो मोक्षका कारण हैं बह बन्धका कारण कैसे हो सकता है। यहाँ सम्यग्दर्शनके काल में जो लोककल्याणका शुभराग होता है वही बन्धका कारण है। इस शुभरागके अभाव में क्षायिक सम्यग्दष्टि जीवके तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध नहीं होता जब कि उसको विशुद्धता सब सम्यग्दर्शनोंमें सर्वश्रेष्ठ होती है और उक्त शुभरागके सद्भावमें क्षायोपमिक सम्यग्दृष्टि जीवको भी. लीर्थकरप्रवृतिका बन्ध हो जाता है जब कि उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय रहनेसे चल-मल तथा अगाढ़ दोष लगा करते हैं | तीर्थकरप्रकृतिका आस्रव प्रथमोपशम, द्वितीयोपशम. क्षायोपमिक और क्षायिक इन चारों सम्यग्यदर्शनोंके कालमें होता है। इसके लिये श्रुतकवली या प्रत्यक्षकेवलीके सन्निधानरूप बाह्य निमित्तकी भी आवश्यकता रहती है। कर्मभूमिज मनुष्यके चतुर्थगुणस्थानसे लेकर आठवें गुणस्थानके छटवें भाग तक ही इसके आस्रवका प्रारम्भ होता है । तीर्थकरप्रकृतिका आनन करनेवाला जीव या तो उसो भवसे मोक्ष प्राप्त कर लेता है या फिर नरक या देवगतिमें जाता है वहाँसे आकर मोक्ष प्राप्त करता है। तीर्थंकरप्रकृतिका आस्रव करनेवाला जीव भोगभूमिका मनुष्य या तियंञ्च भी नहीं होता ।। ४९-५२॥
नीचगोत्रकर्मके आस्रवके हेतु असद्गुणानामाख्यानं सद्गुणाच्छादनं तथा ।
स्वप्रशंसान्यनिन्दा च नोचैगोत्रस्य हेतवः ॥५३॥ अर्थ-अपने अविद्यमान गुणोंका कथन करना, दुसरेके विद्यमान गुणोंको छिपाना, अपनी प्रशंसा करना तथा दूसरेको निन्दा करना ये नीच गोत्र के आनद हैं ।। ५३ ।।
उच्चगोत्र कर्मके आलधके हेतु नीचैर्वृत्तिरनुत्सेका पूर्वस्य च विपर्ययः ।
उच्चैगोत्रस्य सर्वः प्रोक्ता आस्रवहेतवः ॥५४॥ अर्थ-नम्रवृत्ति, अहंकारका अभाव और पूर्व श्लोकमें कहे हुए कारणोसे