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________________ तत्त्वार्थसार काण्डको रचनाएं कों और उनसे उस प्राचीन शैलीको पुनः प्रचारित होनेमें बल प्राप्त हुआ। ___ श्रीममुतचन्द्रसूरिका 'तत्त्वार्थसार' ग्रन्थ भी उमास्वामोंके तत्त्वार्थसूत्रको शैलोमें लिखा हुवा स्वतन्त्र मन्थ है। कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है कि अमृतचन्द्रसूरिने इसे गद्यके स्थानपर पद्यका हो रूप दिया है परन्तु कितने ही स्थानोंपर इन्होंने नवीन तत्त्वोंका भी संकलन किया है। नवीन तत्त्वोंका संकलन करने के लिये इन्होंने अकलंकस्वामीके तत्त्वार्थ राजवातिकका सर्वाधिक आश्रय लिया है। आम्रव तथा मोक्षके प्रकरणमें लो उन्होंने प्रकरणोपास वातिकोंको पद्यानुवादके द्वारा अपने ग्रंथका अंग ही बना लिया है । उमास्वामीने गुणस्थान और मार्गणाओंके जिस प्रकरणको दुरूह समझकर छोड़ दिया था नसे भी अमृतपन्द्रसूरिने यथाकथंचित् स्वीकृत कर विकसित किया है। उमास्वामी महदली भाचार्य के समय कालदोषसे मुनियाम अपने-अपने संघका पक्षपात चल पड़ा। उसे देखकर महसलो आचार्यने मुनिक विधि , सेगसंध, वह पल देवता चार संघ स्थापित कर दिये । उनमें भगवान् महावीर के निर्वाणसे लेकर ६८३ वर्ष व्यतोठ होने के बाद दश वर्ष तक गुप्तिगुप्त आचार्य संचाधिपति रहे, उनके बाद चार वर्ष तक माघनंदी, तत्पश्चात् नौ वर्ष तक जिमचन्द्र, तदुपरान्त बावन वर्ष तक नौकुन्दकुन्द स्वामी और पश्चात् चालीस वर्ष आठ दिन तक उमास्वामी महाराज नन्दिसंघके पीठाधिपति रहे। श्रवणबेलगोल के ६५ शिलालेखमें लिखा है तस्यान्वये भूविविते बभूव यः पननन्दिप्रथमाभिषानः । श्रीकुन्सकुन्दादिमुनीश्वराख्यः सत्संयमाधुगतचारणतः ।।५।। अभूवुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगदप्रपिच्छः । तदन्वये तत्सशोस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपवार्यवेदी ॥६॥ उन जिनचम्न स्वामी के जगत् प्रसिद्ध अन्वयमें 'पद्मनन्दी प्रथम' इस नामको धारण करनेवाले श्रीकुन्दकुन्द नामके मुनिराज हुए । जिन्हें सत्संयमके प्रभावसे चारण ऋद्धिप्रास हुई थी। उन्हीं कुन्दकुन्दस्वामी के अन्वयमें उमास्वाति मुनिराज हुए जो गृद्धपिच्छाचार्य मामसे प्रसिद्ध थे। उस समय गद्भपिच्छाचार्यके समान समस्त पदार्थोका जाननेवाला कोई दूसरा विद्वान नहीं था। श्रवणबेलगोलाके निम्नांकित २५८ वें शिलाप्लेसमें भी लिखा है... तदीपवंशाकरतः प्रसिखापभूबदोषा यतिरत्नमाला । अभी यवन्तमणिवन्मुनीन्द्रः स कुन्दकुन्योक्तिचण्डबण्डः ॥१०॥ अमृवमास्वातिमुनिः पवित्र बंशे तदीये सकलायवेवी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीत शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गायन ॥११॥
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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