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________________ १०२ तस्वार्थसार जो वर्णन है वह मनुष्यक्षेत्रमें होनेवाले व्यवहारकालपर अवलम्बित माना जाता है ।। ४९ ।। कालके भेव भूतश्च वर्तमानश्च भविष्यमिति च त्रिधा । परस्परव्यपेक्षत्वाद् व्यपदेशो द्यनेकशः ॥ ५०॥ अर्थ — वह काल भूत, वर्तमान और भविष्यतके भेदसे तीन प्रकारका होता है क्योंकि परस्परकी अपेक्षासे होनेवाला व्यवहार अनेक प्रकारका होता है ||५०॥ दृष्टांतद्वारा कालके तीन भेदका समर्थन यथानुसरतः पङ्क्ति बहूनामिह शाखिनाम् । क्रमेण कस्यचित् पुंस एकैकानोकहं प्रति ॥ ५१ ॥ संप्राप्तः प्राप्नुवन् प्राप्स्यन् व्यपदेश प्रजायते । द्रव्याणामणि काला ॥५ पर्यायं चानुभवतां वर्तनाया यथाक्रमम् । भूतादिव्यवहारस्य गुरुभिः सिद्धिरिष्यते || ५३ ॥ भूतादिव्यपदेशोऽसौ मुख्यो गौणो नेहसि । व्यवहारिककालोऽपि मुख्यतामादधात्यसौ ||५४ || अर्थ - जैसे बहुतसे वृक्षोंकी पङ्क्ति लगी हुई है । कोई मनुष्य एक-एक वृक्षके प्रति क्रमसे गमन करता हुआ उस पङ्क्तिको पार कर रहा है। वह मनुष्य किसी वृक्षके पास पहुँचता है, किसीको छोड़कर आया है और किसीको आगे प्राप्त करनेवाला है । इस तरह क्रमपूर्वक गति होनेसे उन वृक्षोंमें भूत, वर्तमान और भविष्यत्का व्यवहार जिस प्रकार होता है उसी प्रकार कालाणुओंका अनुसरण करने तथा पर्यायोंका अनुभव करनेवाली द्रव्योंमें क्रमपूर्वक वर्तना होनेसे भूत आदि व्यवहारकी सिद्धि गुरुजनों द्वारा मानी जाती है। चूँकि यह भूत आदिका व्यपदेश निश्चयकालद्रव्यमें मुख्य और गौण होता है इसलिए यह व्यवहार काल भी मुख्यता और गोणताको धारण करता है । भावार्थ -- जिस प्रकार पङ्क्तिबद्ध वृक्षोंको क्रम-क्रमसे पार करनेवाला मनुष्य जिस वृक्ष के पास पहुँचता है उसमें वर्तमानका, जिसे छोड़कर आया है उसमें भूतका और जिसे आगामी कालमें प्राप्त करेगा उसमें भविष्यतुका व्यवहार होता है । उसी प्रकार क्रम-क्रमसे परिणमन करनेवाले द्रव्य जिस कालाणुका
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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