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________________ द्वितीयाधिकार परिपाटयानया ज्ञेयाः स्वयंभरमणोदधिम् । यावज्जिनाज्ञया भव्यैरसंख्या द्वीपसागराः ॥१९२।। अर्थ-लोकके मध्यभागमें तिर्यकरूपसे ( समानधरातलपर । बढ़ते हुए शुभ नामवाले असंख्यात द्वी और समुद्र हैं। उन सब चार योजा विस्तारवाला जम्बूद्वीप है । यह जम्बूद्वीप सूर्यमण्डलके समान आकारवाला है तथा इसके ठोक बीचमें मेरु पर्वस स्थित है ! इसके आगे दुने-दूने विस्तारवाले समुद्र तथा हीप हैं । वे समुद्र और द्वीप पूर्व-पूर्व द्वीप और समुद्रको घेरे हुए चूड़ीके आकार स्थित हैं 1 जैसे जम्बूद्वीपको घेरकर लवणसमुद्र स्थित है। उसे घेरकर धातकी खण्डद्वीप स्थित है। धातकीखण्डद्वीपको घेरकर कालोदधिसमुद्र स्थित है। और कालोदधिसमुद्रको घेरकर पुष्करद्वीप स्थित है। इसी परिपाटोसे स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र जिनेन्द्र भगवान्को आज्ञासे भव्यजोवों के द्वारा जानने योग्य हैं ।। १८७-१९२ ।। अन्बूद्रोपके सात क्षेत्रों के नाम सप्त क्षेत्राणि भरतस्तथा हैमवतो हरिः। विदेहो रम्यकश्चैव हरण्यवत एव च । ऐरावतश्च तिष्ठन्ति जम्बुद्वीपे यथाक्रमम् ॥१९३॥ (षट्पदम् ) अर्थ-जम्बूद्वीपमें क्रमसे भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, और ऐरावत ये सात क्षेत्र स्थित है ।। १९३ ॥ जम्बूद्वीपके कुलाचलोंका वर्णन पार्वेषु मणिभिश्चित्रा ऊर्वाधस्तुल्यविस्तराः । तद्विभागकराः षट् स्युः शैलाः पूर्वापरायताः ॥१४॥ हिमवान्महाहिमवानिपधो नीलरुक्मिणी । शिखरी चेति संचिन्त्या एते वर्षधराद्रयः ।।१९५|| कनकार्जुनकन्लाणवार्जुनकाञ्चनैः ।। यथाक्रमेण निवृत्ताश्चिन्त्यास्ते पण्महीधराः ।।१९६।। अर्थ-उपर्युक्त सात क्षेत्रोंका विभाग करनेवाले छह पर्वत हैं । ये चर्वत किनारों में मणियोंसे चित्र-विचित्र हैं, कपर, नीचे और मध्यमे तुल्य विस्तारवाले हैं तथा
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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