SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीयाधिकार पड़े हुए स्वयंप्रभ पर्वतके आगेके भागमें होते हैं। मच्छ स्वयंभूरमणसमुद्रमें रहता है ।। १४३-१४४ ॥ एकेन्द्रियाविक जीवोंको अघन्य अवगाहना असंख्याततमो भागो यावानस्त्यनुलस्य तु । एकाक्षादि सर्व देवतावान् जायतः ॥१४५॥ ___ अर्थ–एकेन्द्रियादिक सभी जीवोंका शरीर जघन्यरूपसे घनामुलके असंख्यात भाग प्रमाण है। भावार्थ-एकेन्द्रिय जीवोंमें सर्व जघन्य शरीर सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके उत्पन्न होनेके तीसरे समयमें होता है तथा उसका प्रमाण घनाङ्गलके असंख्यात भाग प्रमाण है । द्वौन्द्रियोंमें सर्वजघन्य शरीर अनुंघरोका, त्रीन्द्रियोंमें कुन्युका, चतुरिन्द्रियोंमें क्रणमकाशिकाका और पञ्चेन्द्रियोंमें तण्डलमच्छका होता है । यद्यपि इन सबका प्रमाण सामान्य रूपसे धनाङ्गलके असंख्यातवें भाग बराबर है तथापि वह आगे आगे संख्यात गुणा संख्यात मुणा है ॥ १४५ ।। कौन जीव नरकमें कहाँ तक जाते हैं ? धर्मामसंजिनो यान्ति वंशान्ताश्च सरीसृपाः । मेघान्ताश्च विहङ्गाश्च अञ्जनान्ताश्च भोगिनः ॥१४६॥ तामरिष्टां च सिंहास्तु मघव्यन्तास्तु योषितः । नरा मत्स्याश्च गच्छन्ति माधवीं ताश्च पापिनः ॥१४७॥ अर्थ-असंज्ञो पञ्चेन्द्रिय धर्मानामक पहली पृथिवी तक, सरीसृप वंशा नामक दूसरी पृथिवी तक, पक्षी मेधा नामक तीसरी पृथिवी तक, सर्प अञ्जना नामक चौथौ पृथिवी तक, सिंह अरिष्टा नामक पाँचवीं पृथिवी तक, स्त्रियाँ मधवी नामक छठवीं पृथिवी तक, पापी मच्छ तथा मनुष्य माघवी नामक सातवीं पृथिवी तक जाते हैं ॥ १४६-१४७ ।। नरफोंसे निकले हुए जीव क्या होते हैं ? न लभन्ते मणुष्यत्वं सप्तम्या निर्गताः क्षितेः । तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः ॥१४८|| मच्या मनुष्यलाभेन षष्ठया भूमेर्विनिर्गताः । संयमं तु पुनः पुण्यं नाप्नुवन्तीति निश्चयः ॥१४९||
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy