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________________ तस्वार्थसार त्रयस्त्रिंशत्समुद्राणां विजयादिषु पञ्चसु । साधिकं पन्यमायुः स्यात्सौधर्मशानयोयोः ।।१३२।। परतः परतः पूर्व शेषेषु च जघन्यतः। आयुः सर्वार्थसिद्धौ तु जघन्यं नैव विद्यते ॥१३३॥ अर्थ-सौधर्म-ऐशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर, लान्तव-कापिष्ट, शुक्र-महाशुक्र और शतार-सहस्रार इन छह युगलोंमें क्रमसे कुछ अधिक दो सागर, सात सागर, दश सागर, चौदह सागर, सोलह सागर और अठारह सागर को उत्कृष्ट आयु है। आमत-प्राणत युगलमें बीस सागर तथा आरण-अच्युत युगलमें बाईस सागरकी उत्कृष्ट आयु है। इसके आगे नौग्नवेयकोंमें प्रत्येक प्रैवेयकके अनुसार एक-एक सागरकी आयु बढ़ाना चाहिये । इस तरह प्रथम मेवेयकमें तेईस सागर और मौवें वेयकमें इकतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है । इसके आगे नौ अनुदिशोंमें सामान्यरूपसे एक सामरकी वृद्धि होकर बत्तीस सागरको उत्कृष्ट आयु है। इसके ऊपर विजय आदि पाँच अनुत्तर विमानों में एक सागर बढ़कर तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु है। सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य प्रमाण है । इसके आगे पिछले युगलोंकी उत्कृष्ट स्थिति आगेके युगलों में जघन्य आयु हो जाती है। सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य आयु नहीं होती है ॥ १२९-१३३ ।। तिर्यश्च और मनुष्योंकी जघन्य आयुका सामान्यवर्णन अन्यत्रानपमृत्युभ्यः सर्वेषामपि देहिनाम् । अन्तर्मुहूर्तमित्येषां जघन्येनायुरिष्यते ॥१३४|| अर्थ-जिनकी अपमृत्यु नहीं होती उन्हें छोड़कर अन्य सभी तिर्यञ्च और मनुष्योंकी जघन्य मायु अन्तर्मुहूर्त मानी गई है ।। १३४ ॥ अपमृत्यु किनको नहीं होती ? असंख्येयसमायुष्काश्चरमोचममूर्तयः । देवाश्च नारकाश्चैयामपमृत्युन विद्यते ॥१३॥ १ कुछ अधिकका सम्बन्ध बातायुष्क जीवोंसे है, जो जीव पहले ऊपरके स्वर्गाकी आयुका बंध करते हैं, पीछे संक्लेशपरिणामोंके कारण बद्धनाथुम अपकर्षण कर, नोनले स्वोंमें उत्पन्न होते है ये घातायुष्क कहलाते हैं। ऐसे जीवोंकी आयु उस स्वाकी निश्चित आयुके आघा सागर अधिक होती है । घातायुष्क जीव बारहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न होते हैं।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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