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________________ द्वितीयाधिकार अर्थ-जो जीव शिक्षा, क्रिया तथा आत्माके प्रयोजनको ग्रहण करता है वह संजो कहलाता है । इससे जो विपरीत है उसे जिनेन्द्र भगवानने असंज्ञी कहा है। इस तरह संज्ञी और असंजीके भेदसे संज्ञीमागंणाके दो भेद हैं। ___ भावार्थ-असंही जीवके सिर्फ प्रथम गुणस्थान रहता है और संज्ञी जीवके पहलेसे लेकर बारह तक गुणस्थान होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानमें रहनेवाला जीव न संज्ञी हैं और न असंज्ञी है ।। २३ ॥ ___ आहारमार्गणाका वर्णन गृह्णाति देहपर्याप्तियोग्यान् यः खलु पुद्गलान् । आहारका स विज्ञेयस्ततोऽनाहारकोऽन्यथा ॥९४|| अर्थ-जो औदारिकादि शरीर तथा पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है उसे आहारक जानना चाहिये और जो इससे विपरीत है उसे अनाहारक समझना चाहिए ॥ ९४ ।। अनाहारक कौन होते हैं ? अस्त्यनाहारकोऽयोगः समुद्घातगतः परः । सासनो विग्रहगतौ मिथ्यादृष्टिस्तथाव्रतः ।।१५।। अर्थ--अयोगकेवली, लोकपूरण समुद्धात करनेवाले सयोगकेवली, तथा विग्रहगतिमें स्थित मिथ्यादृष्टि; सासादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव अनाहारक होते हैं ।। ९५ ॥ विग्रहगतिका लक्षण और उसको विशेषता विग्रहो हि शरीरं स्यात्तदर्थ या गतिर्भवेत् । विशीर्णपूर्वदेहस्य सा विग्रहगतिः स्मृता ॥१६॥ जीवस्य विग्रहगती कर्मयोग जिनेश्वराः । पाहुदेहान्तरप्राप्तिकर्मग्रहणकारणम् ॥९७। जीवानां पश्चताकाले यो भवान्तरसंक्रमः । मुक्तानां चोद्धर्वगमनमनुश्रेणिगतिस्तयोः ।।१८।। सविग्रहाऽविग्रहा च सा विग्रहगतिर्द्विधा । अविग्रहैव मुक्तस्य शेषस्यानियमः पुनः ।।१९।।
SR No.090494
Book TitleTattvarthsar
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorPannalal Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages285
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size5 MB
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