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द्वितीयाधिकार द्रव्यानपुंसकानि स्युः श्वानाः सम्मृच्छिनस्तथा । पल्यायुषो न देवाश्च त्रिवेदा इतरे पुनः ।।८०॥ उत्यादः खलु देवीनामैशानं यावदिष्यते ।
गमनं त्वच्युतं यावत् पुवेदा हि ततः परम् ||८१|| अर्थ-नोकषायके उदयसे उत्पन्न होनेवाला भाववेद स्त्री पुरुप और गमके भेदसे लीग प्रारला है : शीप्रसार सममके उदयसे होनेवाला द्रव्यवेद भी तीन प्रकारका है। नारकी तथा सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होनेवाले जीब द्रव्यवेदको अपेक्षा नपुंसक होते हैं । भोगभूमिज मनुष्य तिर्यञ्च तथा देव नपुंसक नहीं होते अर्थात् स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं । शेष मनुष्य और तिर्यञ्च तीनों वेदवाले होते हैं अर्थात् तीन वेदोंमेंसे किसी एक वेदके धारक होते हैं । देवियोंका उत्पाद ऐशान स्वर्ग तक होता है परन्तु उनका गमन अच्युत स्वर्ग तक होता है। इस दृष्टिसे अच्युत स्वर्ग तक पुरुषवेद और स्त्रीवेद ये दो वेद पाये जाते हैं। उसके आगे सब देव पुरुषवेदी ही होते हैं।
भावार्थ-भाववेद और द्रव्यवेदकी अपेक्षा वेदके दो भेद हैं । इनमें स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद नामक नोकषायके उदयसे जो रमणकी इच्छा होती है वह भाववेद कहलाता है। इसके स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस तरह तीन भेद हैं। तथा अङ्गोपाङ्ग नामक नामकर्मके उदयसे शरीरके अंगोंकी जो रचना होती है उसे द्रव्यर्वेद कहते हैं । इसके भी स्त्री, पुरुष और नपुंसक इस तरह तीन भेद हैं। देव, नारकी और भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यञ्च इनके जो द्रव्यवेद होता है वही भाववेद होता है अर्थात् इनके दोनों वेदोंमें समानता रहती है परन्तु शेष जीवाम समानता और असमानता दोनों होती है अर्थात् द्रव्यवेद और भाववेद भिन्नभिन्न होते हैं । यह वेदोंको विभिन्नता जीवनव्यापिनी होती है । क्रोधादि कषायोंकी तरह अन्तर्मुहूर्तमें परिवर्तित नहीं होती है। ऐसे मनुष्य भी जिनके द्रव्यवेद पुरुष और भाववेद स्त्री अथवा नपुंसक है मुनिदीक्षा धारणकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं परन्तु जिनके द्रव्यवेद स्त्री अथवा नपुंसक है और भाववेद पुरुष्प है वे मुनिदीक्षा धारण नहीं कर सकते । ऐसे जीवोंके पञ्चम गुणस्थान तक ही होता है। भाववेदका सम्बन्ध नवम गुणस्थानके पूर्वार्ध तक ही रहता है उसके आगे अवेद अवस्था होती है ।। ७९-८१ ॥
कषायमार्गणाका वर्णन चारित्रपरिणामानां कषायः कपणान्मतः । क्रोधो मानस्तथा माया लोभश्चेति चतुर्विधः ।।८२॥