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________________ अशुद्ध बालोत्पाटनोपवासादिवत् चेतन्न सुपडीण विसोधी तिव्वं सुहाण सङिलेसेण द्रव्यक्रमणो देव मदिरा पीते हैं इत्यादि मिथ्यादर्शनाङिल गितमिति आरंभ परिग्रह श्रास्रव जिसके स्वभावः मार्दवं च ॥ १८॥ त्रिशुद्धि द्रव्यासना हिंसादिष्विहाऽमुत्रचा पायावद्यदर्शनम् ||९| प्रकृतिसंयमः भक्तिकर्म कर्मों का क्षय करने हेतु तपा जाता है शुद्ध केशोत्पाटनोपवासादिवत् चेन्न सुपयडीण विसोहि तिव्वं प्रसुहारण संकिलेसेण द्रव्यकर्मणो देव मदिरा पीते हैं मांस खाते हैं.इत्यादि मिथ्यादर्शनालिङि गतमति. प्रारंभ परिग्रह जिसके स्वभाव मार्दवं च ।। १८॥ त्रिशुद्धि द्वयासना हिंसादिष्विहापायावद्य दर्शनम् ।।९।। प्रकृतिरसंयमः गतिकर्म कर्मों का क्षय करने हेतु श्रागम के. विषय से जोड़ा जाता है. पंक्ति २ ४ ३. ९. २० ८ २० १ १५ १ ४ ६ १.३ पृष्ठ ३६५ ३६८ ३५१ ३६९ ३६९ ३७२ ३७२ ३७३ ३८० ३९६ ४६१ ४७८ ५१४
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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