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सुखबोधायां तत्त्वार्यवृत्ती दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सपिण्यामवसपिण्यां च सिध्यति । .
गत्या-कस्यां गतो सिद्धिा ? अनन्तरगतो मनुष्यगतौ सिद्धिः । एकान्तरगतौ चतसृषु गतिषु जातः सिध्यति ।
- लिङ्गन-वर्तमाननयापेक्षायामवेदत्वेन सिद्धिः । अतीतगोचरनयापेक्षायामविशेषेण त्रिवेदेभ्यः सिद्धिर्भावं प्रति न द्रव्यं प्रति । द्रव्यापेक्षया पुल्लिङ्गनैव सिद्धिः । अथवा प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया निर्ग्रन्थलिङ्गन सिद्धिः । भूतनयादेशेन तु भजनीयम् ।
___तीर्थेन-तीर्थसिद्धिद्वैधा-तीर्थकरत्वेनेतरत्वेन च । केचित्तीर्थकरत्वेन सिद्धाः । अपरे त्वन्यथा सिद्धाः । इतरे द्विविधाः-सति तीर्थकरे सिद्धा असति चेति ।
होता ही नहीं। संहरण की अपेक्षा सर्वकाल में उत्सपिणी और अवसर्पिणी में भी सिद्ध होता है।
गति की अपेक्षा किस गति से सिद्धि होती है ? अनन्तर मनुष्यगति से सिद्धि होती है । एकान्तर गति की अपेक्षा चारों गतियों में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है।
लिंग की अपेक्षा-वर्तमाननय की अपेक्षा अवेद से सिद्धि होती है। अतीत गोचर नयको अपेक्षा सामान्यतः तीनों वेदों से सिद्धि होती है किन्तु भाववेद की अपेक्षा सिद्धि होती है, द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं। द्रव्यवेद की अपेक्षा तो पुल्लिङ्ग से ही सिद्धि होती है । अथवा प्रत्युत्पन्न नयकी अपेक्षा निर्ग्रन्थ लिंग से सिद्धि होती है। भूतनय की अपेक्षा तो भजनीय है।
.:तीर्थ की अपेक्षा-तीर्थसिद्धि दो प्रकार की है-तीर्थंकर होकर सिद्ध होना और तीर्थंकर हए बिना सामान्य केवली होकर सिद्ध होना । कोई तीर्थकर बनकर सिद्ध होते हैं और कोई सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं। सामान्य केवली दो प्रकार से सिद्ध होते हैं। तीर्थंकर के रहते हुए सिद्ध होते हैं और कोई तीर्थङ्कर के नहीं रहते हुए सिद्ध होते हैं।