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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती प्रादुर्भावपरात्कायादियोगनिरोधे सति तन्निमित्तं कर्म नास्रवतीति संवरप्रसिद्धिरवगन्तव्या । सा त्रितयीकायगुप्तिर्वाग्गुप्तिर्मनोगुप्तिरिति । तत्राऽशक्तस्य मुनेनिरवद्यवृत्तिख्यापनार्थमाह
ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः ॥५॥ सम्यगिति वर्तते । तेनेर्यादयो विशेष्यन्ते-सम्यगीर्या सम्यग्भाषा सम्यगेषणा सम्यगादाननिक्षेपः सम्यगुत्सर्ग इति । ता एताः पञ्च समितयो विदितजीवस्थानादिविधेमुनीन्द्रस्य प्राणिपीड़ापरिहाराभ्युपाया वेदितव्याः । तथा प्रवर्तमानस्याऽसंयमपरिणामनिमित्तकर्मास्रवाऽभावात्संवरो भवतीति । तृतीयसंवरहेतोर्धर्मस्य भेदप्रतिपादनार्थमाह
उत्तमक्षमामावाजवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ॥६॥
आदि योगों का निरोध करने पर उन योगों के निमित्त से आने वाला कर्म रुक जाता है, नहीं आता है और इस तरह संवर सिद्ध होता है ऐसा समझना चाहिये । गुप्ति के तीन भेद हैं-कायगुप्ति, वचनगुप्ति और मनोगुप्ति ।
उक्त गुप्तियों के पालन में जो मुनि असमर्थ हैं, उनके लिये निर्दोष चर्या का कथन करते हैं... सूत्रार्थ- ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति और उत्सर्गसमिति ये पांच समितियां होती हैं । सम्यग् शब्द का प्रकरण है, उसको ईर्या आदि के साथ जोड़ना-सम्यगीर्या, सम्यग्भाषा, सम्यगेषणा, सम्यगादाननिक्षेप और सम्यगुत्सर्ग । जिनने जीव स्थान आदि को भली प्रकार से जान लिया है ऐसे मुनिजनों की प्राणि पीड़ा का परिहार करने वाली उपाय स्वरूप ये पांच समितियां कही गयी हैं। समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले साधु के असंयम परिणाम के निमित्त से आने वाला जो कर्म है वह नहीं आता, इस तरह उनके संवर होता है ।
संवर का तीसरा कारण जो धर्म है उसके भेदों का प्रतिपादन करते हैं
सूत्रार्थ-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं ।
शंका-यहां पर दस धर्म का कथन किसलिये किया है ?