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________________ अष्टमोऽध्यायः [ ४७१ दर्शनमत्र तत्त्वार्थश्रद्धानं गृह्यते नाऽवलोकनं तदावरणस्योक्तत्वात् । चारित्रं वक्ष्यमाणलक्षणभेदम् । दर्शनं च चारित्रं च दर्शनचारित्रे । तयोर्मोहनीये दर्शनचारित्रमोहनीये । न कषायोऽकषायः । अत्र कषायप्रतिषेधादकषायः । ईषत्कषायो नोकषाय इति चोच्यते ईषदर्थे नत्रः प्रयोगात् । अकषायश्च कषायश्चाकषायकषायो प्रोक्तलक्षणौ। वेद्यतेऽस्मादनेनेति वा वेदनीयम् । अकषायकषाययोर्वेदनीये • अकषायकषायवेदनीये । दर्शनचारित्रमोहनीये चाऽकषायकषायवेदनीये च दर्शनचारित्रमोहनीयाऽकषायकषायवेदनीयानि । तान्याख्याः संज्ञा येषां ते तथोक्ताः । मोहनीयप्रकारास्ते किंभेदा इत्युच्यते-त्रिद्विनवषोडशभेदा इति । त्रयश्च द्वौ च नव च षोडश च त्रिद्विनवषोडश । ते एव भेदा येषां ते तथोक्ताः । तत्र दर्शनमोहनीयादिभिश्चतुभिस्त्रयादिभेदानां चतुर्णां यथासंक्षय नाभिसम्बन्धः क्रियते । दर्शनमोहनीयं त्रिभेदम् । चारित्रमोहनीयं द्विभेदम् । अकषायवेदनीयं नवभेदम् । कषायवेदनीयं षोडशभेदमिति । तत्र के दर्शनमोहनीयस्य त्रयो भेदा इत्याह-सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयानीति बन्धं प्रत्येकमपि दर्शनमोहनीयं भेद और चारित्रमोहनीय के प्रथम दो भेद करना पुनः एक के नौ और दूसरे के सोलह भेद करना, उनके नाम-दर्शनमोहनीय के सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व हैं। अकषाय वेदनीय के हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नाम हैं । कषाय वेदनीय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्ज्वलन में से प्रत्येक के क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे चार चार भेद होने से सब सोलह भेद हो जाते हैं। इस तरह कुल अट्ठावीस भेद मोहनीय कर्म के कहे गये हैं। यहां पर दर्शन शब्द का अर्थ श्रद्धान लिया है देखना अर्थ नहीं लिया है क्योंकि दर्शन का आवरण पहले कह दिया है उसका यहां प्रसंग नहीं है । चारित्र का लक्षण और भेद आगे कहेंगे । दर्शन चारित्र पद में द्वन्द्व समास है। 'न कषायः अकषायः' इसमें कषाय के निषेध से अकषाय बना है, इसको ईषत्कषाय और नोकषाय भी कहते हैं। इसमें ईषत् किञ्चित् अर्थ में नञ समास हुआ है। कषाय और अकषाय का लक्षण कहां दिया है । वेदा जाता है इससे या इसके द्वारा वह वेदनीय है, यह वेदनीय शब्द कषाय और अकषाय के साथ जोड़ना। दर्शनचारित्र मोह इत्यादि पदों का द्वन्द्व समास कर आख्या शब्द के साथ बहुब्रीहि समास करना । ये मोहनीय के जो भेद हैं वे तीन, दो, नौ और सोलह हैं, त्रि आदि संख्या पदों में द्वन्द्व समास करना, इन संख्याओं का यथाक्रम से सम्बन्ध करना अर्थात् तीन भेद वाला दर्शन मोहनीय है, चारित्रमोहनीय दो भेदवाला, अकषाय वेदनीय नौ भेदवाला और कषाय वेदनीय सोलह भेदवाला है। प्रश्न-दर्शनमोहनीय के तीन भेद कौन से हैं ?
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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