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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती सम्बन्धार्थत्वात्प्रतिपदं पाठकरणस्य मतेरावरणं श्रुतस्यावरणमित्यादि । इतरथा हि-मत्यादीनामित्युच्यमाने तेषामेकमावरणमिति संप्रत्ययः स्यात् । ननु पञ्चज्ञानावरणस्योत्तरप्रकृतय इति प्रागुक्तम् । मत्यादीनि ज्ञानानि च पञ्चोक्तानि । ततस्तद्वचनादेव सङ्ख्यासम्प्रत्ययोभविष्यतीति चेत्तन्न-प्रत्येकमावरणपञ्चत्वप्रसङ्गात् । तद्वचनाद्धि मत्यादीनां प्रत्येक पंचावरणानीत्यप्यनिष्टं प्रसज्येत । प्रतिपदग्रहणे पुनः सति सामर्थ्यादिष्टार्थसंप्रत्ययः शक्यले कर्तुम् । अत्र कश्चिदाह-मनःपर्ययज्ञानगमनशक्तिः केवलज्ञानप्राप्तिसामयं चाऽभव्यस्यास्ति वा नवेति । यद्यस्ति तर्हि तस्याभव्यत्वं नोपपद्येत । अथ नास्ति तदुभयसामर्थ्याभावात्तदावरणद्वयकल्पना व्यर्थेति । तत्रोच्यते-नैष दोषोस्त्याहतानामुभयनयसद्भावात् । द्रव्यार्थादेशात्सतोर्मन:पर्ययकेवलज्ञानयोरावरणम् । पर्यायार्थादेशादसतोरिति । ननु यदि द्रव्यार्था
... समाधान-ऐसा नहीं कहना, पांचों में प्रत्येक का आवरण के साथ सम्बन्ध जोड़ना है, प्रतिपद में पाठ करना अर्थात् 'मतेरावरणं श्रुतस्यावरणम्' इत्यादि सम्बन्ध करना इष्ट है, अन्यथा 'मत्यादीनाम्' ऐसा सूत्र रचते तो उन सब ज्ञानों का एक आवरण है ऐसा अनिष्ट अर्थ होता।
'शंका-ज्ञानावरण की उत्तर प्रकृतियां पांच हैं ऐसा कहा है, मति आदि पांच ज्ञान भी कह चुके हैं । उससे ही संख्या का बोध हो जाता है अर्थात् यहां पांचों ज्ञानों के नाम नहीं लेने पर भी उनकी संख्या का बोध हो जाता है अतः ‘मत्यादीनाम्' ऐसा सूत्र बनाने पर भी अर्थ फलित होगा। ___समाधान-ऐसा नहीं कहना, वैसा सूत्र रचने पर मति आदि के एक-एक के पांच-पांच आवरण होते हैं ऐसा अनिष्ट अर्थ होता है और मति आदि पांच नाम लेने से सामर्थ्यवश इष्ट अर्थ की प्रतीति करना शक्य हो जाता है ।
शंका-मनःपर्यय ज्ञान गमन की शक्ति और केवलज्ञान प्राप्ति की शक्ति अभव्य जीवों के है या नहीं, यदि है तो उनके अभव्यपना नहीं रहता, और वह शक्ति नहीं है तो उन दोनों ज्ञानों की शक्तियां नहीं होने के कारण अभव्य के इन दोनों ज्ञानों के आवरण मानना व्यर्थ है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है । अर्हन्त देव के मतमें दो नय माने गये हैं, द्रव्याथिक नय से सत् स्वरूप मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के आवरण आते हैं । और पर्यायाथिक नय की अपेक्षा असत्रूप ज्ञानों के आवरण आते हैं। (प्रगटता नहीं होने के कारण उक्त ज्ञान असत्रूप है) ऐसा समझना चाहिए ।