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________________ ४ ] सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ ज्ञानासं यमाभावेऽपि संसारावस्थानाभ्युपगमादन्यथा तत्त्वोपदेशाभावलक्षणस्योक्तदोषानुषङ्गस्य तदवस्थत्वात् । ततो मिथ्यादर्शनादित्रितय हेतुक एव संसार इति भावनीयम् । तस्यात्यन्तनिवृत्तिलक्षणश्च मोक्षः सम्यग्दर्शनादित्रितयसाध्य एवेति च निश्चयः । तहि सयोगकेवलिनः प्रकृष्टसम्यग्दर्शनादित्रितयाविर्भावे सति मिथ्यादर्शनादित्रितयनिवृत्तिलक्षण एव मुक्तिप्रसङ्गात्कथं भवतां जैनानामपि मते आप्तस्य तत्त्वोपदेशनासम्भाव्यत इति चेन्न – कायादियोगत्रयसम्भवात् । योगा ह्यचारित्रेऽन्तर्भवन्ति तेषां त्रयोदशगुणस्थानव्यापित्वात् । कायादिक्रियानिवृत्तिका रणस्यायोगकेवलिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्तिपरमशुक्लध्यानस्य चारित्रेऽन्तर्भाववत् । अत एव प्रयोग केव लिचरमसमयवतिरत्नत्रयसंपूर्णतेव यदि कोई कहे कि संसार के कारण अज्ञान और असंयम ये दो हैं तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जिस पुरुष के तत्त्वज्ञान और वैराग्य प्रगट हुआ है उसके अज्ञान और असंयम का अभाव हो चुकने पर भी संसार में अवस्थान स्वीकार किया है यदि उस पुरुष के संसार में स्थिति नहीं मानी जाती है तो वही पूर्वोक्त दोष आता है कि तत्त्वपदेश का अभाव होता है, अर्थात् तत्त्वज्ञानी वैराग्यवान् पुरुष के उसी क्षण मुक्ति होना स्वीकार करते हैं तो तत्त्वों को उपदेश कौन देगा ? उसका अभाव होता है और उसी क्षण मुक्ति नहीं होती है तो तत्त्वज्ञान और वैराग्य से मुक्ति हुई ऐसा सिद्ध नहीं होता है । इसलिये यह निश्चित होता है कि मिथ्यात्वादि तीन कारण रूप ही संसार है, और उस संसार का अत्यन्त अभाव रूप जो मोक्ष है वह सम्यग्दर्शन आदि तीन कारणों द्वारा ही साध्य है । शंका- इस प्रकार संसार और मुक्ति के तीन कारण स्वीकार किये जाते हैं तो जिनके सम्यग्दर्शन आदि तीनों प्रकृष्ट रूप से प्रगट हो चुके हैं ऐसे सयोग केवली जिनेन्द्र मिथ्यादर्शनादि तीन के नाश स्वरूप मुक्ति के प्राप्त होने का प्रसंग आता है अतः आप जैनों के मत में भी भगवान आप्त के तत्त्वों का उपदेश देना घटित नहीं होता है ? समाधान - यह शंका ठीक नहीं है, उन सयोगी जिनके अभी काय योग आदि तीन योग मौजूद हैं, मनोयोग, वचनयोग और काय योग ये तीन योग अचारित्र असंयम में अन्तर्निहित हैं अर्थात् योग के सद्भाव में चारित्र परिपूर्ण नहीं होता, योग तेरहवें गुणस्थान तक होता है । इसी प्रकार कायादि क्रिया के अभाव का कारण रूप अयोग केवली के होने वाला समुच्छिन्न क्रिया-निवृत्ति नाम वाला चौथे परम शुक्लध्यान का चारित्र में अन्तर्भाव करते हैं । और इसीलिये अयोग केवली भगवान के चरम समय
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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