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पंचमोऽध्यायः ।
[ ३४३ भवनं भावः । तेषां भावस्तद्भावस्तत्त्वं द्रव्यभवनमिति यावत् । परिणमनं परिगमनं परिणामः । धर्मादीनि द्रव्याणि येनात्मना भवन्ति स तद्भावः परिणाम इति संज्ञायते । स च द्विधा भिद्यतेअनादिरादिमांश्चेति । तत्राऽनादिर्धर्मादीनां गत्युपग्रहादिस्वतुल्यकालसन्तानवर्ती सामान्यरूपः । आदिमांश्च बाह्यप्रत्ययापादितोत्पादविशेषरूप: कथ्यते । अथवा पर्यायस्वरूपकथनार्थमिदं सूत्रं युक्तमिति बोद्धव्यम् ।
कहते हैं उनका होना अर्थात् द्रव्यों का होना । परिणमन-परिगमन ही परिणाम है, धर्म आदि द्रव्य जिस रूप से होते हैं वह उसका भाव परिणाम है । वह परिणाम दो प्रकार का है-आदिमान् और अनादिमान् । धर्मादि द्रव्यों का जो गति स्थिति आदि रूप उपग्रह है जो कि अपने तुल्य काल संतानवर्ती सामान्यरूप है वह अनादि परिणाम है। बाह्य कारण से होने वाले उत्पाद व्यय आदि विशेष हैं वह आदि मान परिणाम है।
अथवा 'तद्भावः परिणामः' यह सूत्र पर्याय के स्वरूप का कथन करने हेतु आया है ऐसा जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यहां पर 'तद्भावः परिणामः' सूत्र की टीका करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि द्रव्य या पदार्थ का उसी रूप होना परिणाम कहलाता है, वह परिणाम द्रव्य से अभिन्न है, धर्मादि द्रव्य गति आदि उपकार रूप प्रवृत्त होते हैं वह परिणाम है परिणाम का ऐसा लक्षण गुणरूप पड़ता है। तथा पर्याय स्वरूप 'कथनार्थं इदं सूत्रं युक्तम्' ऐसा कहकर इस सूत्र को पर्याय लक्षण रूप भी माना है अर्थात् उस द्रव्य का होना परिणाम अर्थात् पर्याय है यह पर्याय का लक्षण है। इस प्रकार 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' सूत्र द्वारा गण का लक्षण और 'तद्भावः परिणामः' सूत्र से पर्याय लक्षण श्री उमास्वामी आचार्य देव ने किया है ऐसा समझना चाहिए। 'तद्भावः परिणामः' सूत्र का पर्यायपरक अर्थ श्लोक वात्तिककार श्री विद्यानन्दी आचार्य ने भी इसी सूत्र की टीका में 'तद्भावः परिणामोऽत्रपर्यायः प्रतिवर्णितः' इत्यादि कारिका द्वारा किया है।