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________________ पंचमोऽध्यायः [ २६१ न्तीति संक्षेपः । तद्विस्तरः पुनरयमुच्यते-तत्र शरीराण्यौदारिकादीनि स्थूलसूक्ष्माणि प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष रूपाणि पञ्चोक्तानि । तत्र च यानीन्द्रियप्रत्यक्षाणि तत्र विवादाभावान्न तदर्थोयं सूत्रारम्भः, किं तहिजीवं प्रत्युपकारजनकसूक्ष्मपुद्गलसिद्धयर्थः । तथाहि-शरीरं तावत्पुद्गलकार्य स्पर्शादिमत्वाद्घटादिवत् । अथ मतमेतत्-कार्मणं शरीरमपौद्गलिकमनाकारत्वादिति । तदयुक्त-मूर्तिमत्सम्बन्धेन विपच्य मानत्वाबोह्यादिवत् । यथा व्रीह्यादीनामुदकादिद्रव्यसम्बन्धप्रापितपाकानां पौद्गलिकत्वं दृष्टं तथा कामणमपि गुडकण्टकादिमूर्तिमद्रव्योपनिपाते सति विपच्यमानत्वात्पौद्गलिकमित्यवसीयते। न ह्यमूर्त किंचिन्मूर्तिमत्सम्बन्धे सति विपच्यमानं दृष्टमिति । वाग्द्विविधा-भाववाग्द्रव्यवाक्चेति । तत्र भाववाक् चेतनपर्यायरूपा वीर्यान्तरायमतिश्रुतज्ञानावरणपुद्गलाङ्गोपाङ्गनामपुद्गललाभनिमित्तत्वादुपचारतः पौद्गलिकी-पुद्गलस्य निमित्तस्याभावे तवृत्त्यभावात् । भाववचनसामोपेतेन क्रियावतात्मना कथन है । इसीको आगे विस्तार पूर्वक कहते हैं-प्रत्यक्ष परोक्षरूप स्थूल सूक्ष्म औदारिक आदि पांच शरीर होते हैं जिनको कि पहले कह आये हैं [ २ अ. सू. ३६ ] उन शरीरों में जो शरीर इन्द्रिय प्रत्यक्ष हैं उनमें तो विवाद नहीं है अतः उनके कथन के लिये यह सूत्र प्रारंभ नहीं हुआ है, किन्तु जीव के प्रति जो उपकार का जनक है उस सूक्ष्म पुद्गल रूप शरीर की सिद्धि के लिये यह सूत्र प्रारंभ हुआ है । इसीको अनुमान से सिद्ध करते हैं-शरीर तो पुद्गल द्रव्य का कार्य है, क्योंकि स्पर्शादि मान है, जैसे घट आदि पदार्थ स्पर्शादिमान होने से पुद्गल के कार्य हैं । शंका-कार्मण शरीर पौद्गलिक नहीं है क्योंकि अनाकार है ? समाधान-यह कथन ठीक नहीं है, कार्मण शरीर मूर्तिमानके संबंध से फलता है, ब्रीहि आदि के समान अर्थात् जैसे ब्रीहि-चावल आदि धान्य जल आदि द्रव्य के संबंध से पकते हैं अतः ब्रीहि आदि पौद्गलिक हैं वैसे कार्मण भी गुड़ काटा आदि मूत्तिक द्रव्यों के संबंध होने पर पकता है अतः कार्मण मूर्तिमान है । कोई ऐसा पदार्थ नहीं देखा गया है कि जो अमूर्त हो और मूर्तिक के संबंध से पकता हो । वाक्-[ वाणी-वचन ] दो प्रकार की है-भाव वाग् और द्रव्य वाग् । उनमें भाववाग् चेतन पर्याय रूप है। इसमें वीर्यान्तराय, मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मों का क्षयोपशम निमित्त है तथा पुद्गल विपाकी अंगोपांग नाम का उदय निमित्त है, इन निमित्तों की दृष्टि से भाववाग् उपचार से पौद्गलिक कही जाती है । पुद्गल का निमित्त हट जाने पर भाववाग् नहीं होती । भाववाग् के सामर्थ्य से युक्त क्रियावान आत्मा द्वारा प्रेरित हुए पुद्गल वचन
SR No.090492
Book TitleTattvartha Vrutti
Original Sutra AuthorBhaskarnandi
AuthorJinmati Mata
PublisherPanchulal Jain
Publication Year
Total Pages628
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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