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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्तौ वैमानिकाः ॥ १६ ॥
स्वस्थान्सुकृतिनो विशेषेण मानयन्ति धारयन्तीति विमानानि । तेषु भवा वैमानिकनामकर्मोदनिमित्तत्वाद्वैमानिका इत्यतोऽधिकृता वेदितव्याः । तेषां वैमानिकानां भेदावधारणार्थमाहकल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ।। १७ ।।
सौधर्मादिषु षोडशसु कल्पेषूपपन्ना उत्पन्ना ये ते कल्पोपपन्नाः । कल्पानतीताः कल्पातीताश्चे त्येवं वैमानिका देवा द्वेधा भवन्ति । कथं तर्हि ते व्यवस्थिता ? इत्याह
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उपर्युपरि ॥ १८ ॥
भवनवासिव्यन्तरवन्न विषमावस्थितयो नापि ज्योतिष्कवत्तिर्यगवस्थिता वैमानिका इत्येतस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थमुपर्युपरीत्युच्यते । कियत्सु कल्पविमानेषु देवा भवन्तीत्याह
चौथे निकाय की सामान्य संज्ञा द्वारा उसके अधिकार की सूचना सूत्र द्वारा करते हैं—
सूत्रार्थ - चौथे निकाय के देव वैमानिक होते हैं ।
जो अपने में रहने वाले जीवों को विशेष पुण्यशाली मानते हैं वे विमान हैं, विमान में होनेवाले वैमानिक कहलाते हैं अथवा वैमानिक नाम कर्म के उदय से जो होवे वे वैमानिक देव हैं, इनका आगे अधिकार है ऐसा समझना चाहिये ।
उन वैमानिकों के भेदों का अवधारण करते हैं
सूत्रार्थ - वैमानिक दो भेद वाले हैं- कल्पोपपन्न और कल्पातीत । सौधर्मादि सोलह कल्पों में जो उत्पन्न हुए हैं उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं और कल्पों से जो अतीत हैं वे कल्पातीत हैं, इसप्रकार वैमानिक देवों के दो भेद हैं ।
प्रश्न - वे किस प्रकार व्यवस्थित हैं ?
उत्तर- अब इसीको कहते हैं
सूत्रार्थ - वे वैमानिक ऊपर ऊपर व्यवस्थित हैं । भवनवासी तथा व्यन्तरों के समान ये वैमानिक विषम रूप से स्थित नहीं हैं न ज्योतिष्क के समान तिरछे स्थित हैं, इस अर्थ का प्रतिपादन करने के लिये “ उपरि उपरि " ऐसा सूत्र कहा है ।
कितने कल्प विमानों में देव होते हैं ऐसा पूछने पर कहते हैं