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सुखबोधायां तत्त्वार्थवृत्ती एवं विदेहो वर्णितः । नीलरुक्मिपर्वतयोः पूर्वापरसमुद्रयोश्च मध्ये रम्यकवर्षः । तन्मध्ये गन्धवान्वृत्तवेदाढ्यः पर्वतोऽस्ति । सोऽपि पटहसंस्थानः । शब्दवद्वृत्तवेदाढय न तुल्यवर्णनः। रुक्मिशिखरिणोः पूर्वापरसमुद्रयोश्चान्तरे हैरण्यवतवर्षः । तन्मध्ये माल्यवान्वृत्तवेदाढयोऽद्रिरस्ति । सोऽपि पटहसमानः शब्दववृत्तवेदाढ्य न तुल्यवर्णनः । शिखरिणः पूर्वोत्तरपश्चिमसमुद्रत्रयस्य चान्तरे ऐरावतवर्षः । तन्मध्ये भरतविजयार्धतुल्यविस्तारोत्सेधावगाहो रजताद्रिविद्यते । तेन विजयार्धेन रक्तारक्तोदाभ्यां च विभक्तत्वात्सोऽपि षड्खण्डः । तेषां क्षेत्राणां के विभागहेतवः कीदृशाश्च त इत्याह
तद्विभाजिन: पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनील
रुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥ ११ ॥ तानि भरतादिक्षेत्राणि विभजन्ति पृथक्कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तद्विभाजिनः । पूर्वश्चापरश्च पूर्वापरौ दिग्विभागौ । तयोरायता दीर्धीभूताः पूर्वापरायताः । पूर्वपश्चिमस्वकोटिभ्यां लवणसमुद्रस्पर्शिन
नील और रुक्मि कुलाचल तथा पूर्वा पर समुद्रों के मध्य में रम्यक क्षेत्र है। उसके मध्य में गंधवान वृत्त वैताढ्य है, वह पटहाकार है और शब्दवान वृत्तवैताढ्य के समान वर्णन वाला है अर्थात् इसकी चौड़ाई ऊंचाई आदि शब्दवान के समान है। रुक्मि और शिखरी पर्वत तथा पूर्वापर समुद्रों के मध्य में हैरण्यवत क्षेत्र है, उसके मध्य में माल्यवान वृत्तवैताढय पर्वत है । वह पटहाकार है एवं शब्दवान वैताढय के समान प्रमाण वाला है । शिखरी पर्वत और पूर्वोत्तर पश्चिम समुद्रों के अन्तराल में ऐरावत क्षेत्र है। इसके मध्य में विजयार्ध पर्वत है, यह भरत क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत के समान विस्तार ऊंचाई और अवगाह वाला है । उस विजयार्ध से तथा रक्ता रक्तोदा नदियों द्वारा विभक्त हुआ छह खण्ड युक्त हो जाता है ।
[चार्ट अगले पृष्ठ पर देखिये ] उन भरतादि क्षेत्रों के विभाग के कारण कौन हैं तथा वे किसप्रकार के हैं ऐसा प्रश्न होने पर सूत्र कहते हैं
सत्रार्थ-उन भरतादि क्षेत्रों का विभाग करने वाले पूर्व पश्चिम लंबे हिमवन महाहिमवन्, निषध, नील, रुक्मि और शिखरी नाम वाले छह कुलाचल पर्वत हैं।
उन भरतादि क्षेत्रों का विभाग अर्थात् पृथक् पृथक्पना करने वाले ये पर्वत हैं, पूर्व और ऊपर दिशा भाग में आयत हैं अर्थात् अपने पूर्व पश्चिम सिरे से लवण समुद्र